“आइडिया से परदे तक : कैसे सोचता है फ़िल्म का लेखक?” अपने पाठक को व्यवस्थित, पढ़ने-लिखने की दुनिया के प्रति गंभीर और जिम्मेदार बनानेवाली किताब है. इस किताब के ज़रिए लेखकद्वय रामकुमार सिंह और सत्यांशु सिंह ने किसी आइडिया या विचार का परदे तक की यात्रा को जिस संजीदा ढंग से विश्लेषित किया है, एक-एक पंक्ति से गुज़रने के बाद मैं यह बात पूरे भरोसे और इत्मिनान के साथ कहने की स्थिति में हूं कि यह किताब महज मीडिया और सिनेमा लेखन में दिलचस्पी रखनेवाले, पत्रकारिता एवं सिनेमा की पढ़ाई करनेवाले और मुंबई में पैर जमाने के लिए सपने देखनेवाले लोगों के लिए नहीं है. सबसे पहला प्रभाव तो यह कि किसी बात के कहने का अंदाज़ कैसा हो कि हम जिस किताब को लेटते हुए पढ़ना शुरू करते और तीन-चार पन्ने से गुज़रने के बाद स्टडी टेबल पर बैठकर नोट्स लेने लग जाते हैं और पूरी किताब से एक छात्र के तौर पर गुज़रते हैं.
“आइडिया से परदे तक : कैसे सोचता है फ़िल्म का लेखक?” एक ऐसी किताब है जिनसे गुज़रते हुए मीडिया और सिनेमा पढ़ानेवाले मास्टर अपना बेहतर आकलन कर सकेंगे कि वो अपनी कक्षा में पढ़ाने के नाम पर क्या करते हैं और कहां पर आकर ऐसी स्थिति में होते हैं कि छात्र उनकी बातों को किताबी मानकर ऑडियो-वीडियो म्यूट करके कुरकुरे खाने चले जाते हैं. मीडिया और सिनेमा का अध्ययन-अध्यापन कितना गंभीर और बहुस्तरीय काम है, यह आप इस किताब से गुज़रते हुए बेहतर महसूस कर सकेंगे. दूसरा कि यह किताब हर उस व्यक्ति के पास होनी चाहिए जो अपने बच्चों या छात्र को कुछ बताना-समझाना चाहते हैं. पाठ के प्रति दिलचस्पी पैदा करना चाहते हैं. और तीसरी बात कि यह किताब सिनेमा, पटकथा, वेब सीरीज आदि पर बात करते हुए गहरे जाकर जीवन दृष्टि को केन्द्र में लाकर खड़ी कर देती है. बतौर एक पाठक-लेखक मैं किताबों से गुज़रते हुए लेखक का शुक्रिया तो अदा करता ही आया हूं कि आपने मेरी समझ, अभिरुचि और मानवीय संवेदना का विस्तार किया, इस किताब के लिए मैं दोनों लेखकों का एक बेहतरीन शिक्षक, सीनियर की भूमिका में सहजता से पाठ के प्रति जानकारी और समझ पैदा करने के लिए सम्मान व्यक्त करता हूं.
लेखकद्वय के प्रति मेरे मन में गहरा सम्मान इस कारण भी ज़्यादा पनप पाता है कि दोनों के पास पत्रकारिता, मीडिया एवं सिनेमा लेखन को लेकर अपना इतना काम है कि केवल उनकी चर्चा और अनुभवों को पाठक से साझा करें तो कई किताबें निकल आएंगी. आप चाहें तो दोनों के परिचय में लिखी गयी जानकारी से गुज़र सकते हैं. लेकिन पूरी किताब में उदाहरण के तौर पर इन्होंने अपने किसी काम की चर्चा नहीं की और मैं-मैं शैली के शिकार होने से बच गए. मैं किताब के लेखकद्वय को बेहतरीन शिक्षक इस रूप में देख पाता हूं कि मैंने अपने काम के बीच ऐसे दर्जनों टेलिविज़न चेहरे, सिनेमा से जुड़ी शख़्सियत और पत्रकारिता के चेहरे देखे जो अपने सुनने-पढ़नेवालों की जुटान देखकर इतने आत्म-केंद्रित हो जाते हैं कि उनकी घंटों की बात ख़ुद से शुरु होती है और ख़ुद पर जाकर ख़त्म हो जाती है. इस ख़ुद में कई बार विषय इतना पीछे चला जाता है कि कहना पड़ जाता है— वापस लौट आइए, हमारा पाठ्यक्रम (कोर्स) आपको बुला रहा है. यहां शुरू में ही बतौर लेखक अपने को एक “अनसंग हीरो” की तरह शामिल करता है कि जिससे पूरी किताब में विषय केन्द्र में होते हैं और लेखक को कभी यह ध्यान भी नहीं रहता कि उसने अपनी फिल्मो-पटकथा और उपलब्धियों के बारे में तो कोई चर्चा ही नहीं की. ऐसा कर पाना आसान काम नहीं है. किताब के प्रति हम जैसे पाठक का जुड़ाव इस कारण कहीं ज़्यादा बन पाता है.
किताब की लेखन शैली ऐसी है कि कुछ ही पन्ने से गुज़रने के बाद आपको लगेगा कि आप क्लासरूम के बाहर कैंटीन, लॉन या स्टेडियम की सीढ़ियों पर बैठे हों और कोई सुपर सीनियर या शिक्षक आपको पाठ के बारे में अनौपचारिक अंदाज़ में किन्तु मतलब की बात बताए जा रहे हों. आपमें से जो लोग जेएनयू और डीयू के दिनों में ऐसे शिक्षकों या सीनियर्स से मिले होंगे, आप एकदम से लेखकद्वय को उसी रूप में महसूस करेंगे. मैं अपने हिन्दू कॉलेज के दिनों को याद करके यह समझ पाता हूं कि ऐसी पढ़ाई कई बार क्लासरूम से कहीं ज़्यादा असर कर जाती है क्योंकि इसमें पाठ और जीवन दोनों शामिल होते हैं. किताब की शैली इतनी आत्मीय और संवादधर्मी है कि आप फिर ये भूल जाते हैं कि हमारे सामने कोई किताब है. आपको लगेगा दो शिक्षक हैं जो बारी-बारी से एक पीपीटी-स्लाइड दिखा रहे हैं और उन्हें विश्लेषित करते जा रहे हैं.
“आइडिया से परदे तक : कैसे सोचता है फ़िल्म का लेखक?” की सबसे ख़ूबसूरत बात है कि बिना सिनेमा-पटकथा-टीवी-वेब लेखन और निर्माण के प्रति बिना किसी तरह का आतंक (दि लल्लनटॉप के शब्दों में कहें तो भौकाल) पैदा किए, अपने पाठकों का हाथ पकड़कर सहजता से एक सवाल करती है- तुम सिनेमा को लेकर सचमुच सीरियस हो? और फिर शुरू के छह-सात पन्ने में ही कुछ बातें बता जाते हैं— तब तुम्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई के प्रति थोड़ा गंभीर होना होगा. आइडिया और लेखन के नाम पर लफ़्फाजी और बौद्धिक विलास से काम नहीं चलेगा. तुम्हें यह समझना होगा कि यह महज रचनात्मक लेखन और कार्य नहीं नहीं, व्यावसायिक रचनात्मक कार्य है जिसका मतलब है कि तुम्हारी रचनात्मकता के पीछे कई दूसरे लोगों के सपने और काम, समय और पैसा और उम्मीदें टिकी होगीं. ऐसे में मैं-मैं करने के बजाय तुम्हें ख़ुद के प्रति सबसे ज़्यादा क्रिटिकल होना होगा. यही वो अंदाज़ है जिनसे गुज़रते हुए मैंने शुरू में लिखा कि और तब यह किताब सिर्फ मीडिया और सिनेमा पढ़ने-पढ़ानेवाले, सिनेमा में अपना करिअर बनानेवालों की नहीं रह जाती, उन सबकी किताब होने का माद्दा रखती है जो सपने देखते हैं और जिनके सपने और जीवन के बीच एक बड़ा अंतराल है. इस क्रम में लेखक सिनेमा के तमाम तरह के उदाहरण देने के साथ-साथ स्वाभाविक ढंग से ऐसी बातें कह जाते हैं कि आपको लगता है कि सिनेमा लेखन की दृष्टि समझने के लिए जीवन दृष्टि समझना अनिवार्य है. (जीवन में ऐसे लोगों की कमी नहीं होती, जो बिना किसी मक़सद के जिए जा रहे हैं, या बिना आवाज़ उठाए बर्दाश्त किए जा रहे हैं. मगर आप मानेंगे कि हम हमारी आम ज़िंदगी में भी उन्हीं लोगों की कहानी जानने में रुचि होती है जो अपनी दशा बदलने के लिए कुछ करते हैं. (पृ.सं. : 62)
पूरी किताब में एक के बाद एक ऐसे प्रसंग और उद्धरण है जो पाठक को बिना किसी अतिरिक्त आग्रह के बताती चलती है कि सिनेमा लेखन और निर्माण के लिए एक बेहतरीन पाठक का होना बेहद ज़रूरी है. एक पाठक जिसका कि हर तरह के विषय, पुस्तक, शोध और गतिविधियों में दिलचस्पी हो जिन्हें कि अपनी ज़रूरत के अनुसार उनका बेहतर उपयोग कर सके. शुरू से आख़िर तक के अध्याय में सिनेमा, कला और साहित्य से जुड़े अध्येताओं के उद्धरण शामिल किए गए हैं जो कि अंग्रेजी में हैं. किताब के बीच में जो उद्धरण या वक्तव्य शामिल किए गए हैं, वो हिन्दी तर्ज़ुमा है. आप दोनों तरह के उद्धरण से गुज़रते हुए समझ पाते हैं कि सिनेमा लेखन और निर्माण का काम गहरे अध्ययन से जुड़ा काम है और पर्दे की दुनिया भी किताबों से ही खुलती है. आपको इस किताब से गुज़रने के बाद किताबों के प्रति थोड़ा और प्रेम हो सकेगा. (यह हम लेखकों का उपहार या विशेषाधिकार है, हम आजीवन विद्यार्थी बने रह सकते हैं. अगर शोध की प्रक्रिया को बोझ की तरह लेंगे तो आप एक लेखक होने सुख नहीं ले पाएंगे जो उसके जीवन में बिना प्रयास ही आ जाता है. आपको हमेशा इसे उत्साह से लेना चाहिए. (पृ.सं. : 42 ).
लेखकद्वय ने सिनेमा लेखन एवं निर्माण से जुड़ी बातें स्पष्ट ढंग से विश्लेषित करने के इरादे से “शोले”, “दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे”, “सत्या”, “टाइटेनिक”… जैसी फिल्मों को पाठ के तौर पर शामिल किया है. आप प्रबंधन या विधि की कक्षाओं में जिस तरह पाते हैं कि केस स्टडीज की पूरी पढ़ाई में केन्द्रीय भूमिका होती है. आइडिया से परदे तक की यात्रा चलती रहती है लेकिन उदाहरण लगभग इन्हीं दर्जनभर फिल्मों की होती है. आप कह सकते हैं कि ऐसा करके लेखक एक तरह से अघोषित पाठ्यक्रम (सिलेबस) आपके सामने रखते हैं कि आप इन फ़िल्मों को स्क्रीन-पाठ की तरह अपने साथ लेकर चलते हो तो हमारी बात समझने में आसानी होगी. ऐसा किए जाने से पाठक पाठ की अन्तर्गम्यता (इंटरटेक्स्टुअलिटी) को बेहतर ढंग से पकड़ पाते हैं. मीडिया और सिनेमा पढ़ानेवाले मास्टर चाहें तो इसे अपनाकर अपनी एक व्यक्तिगत शैली विकसित कर सकते हैं.
दिलचस्प बात है कि किताब में सिनेमा के लगभग चार दर्जन तकनीकी शब्दावली का प्रयोग किया गया है. इन्हें इस रूप में बताया गया है कि पाठक चाहें तो इन्हें नोट करके सिनेमा संक्षिप्त-कोश तैयार कर सकते हैं. अगले संस्करण में लेखक-प्रकाशक यह काम कर देते हैं तो और भी बेहतर बात होगी. इन तकनीकी-पारिभाषिक शब्दावली के भी दो रूप हैं- एक औपचारिक जिन्हें कि आप पुस्तकों या तकनीकी शब्दावली में भी खोजकर समझ सकते हैं लेकिन कुछ ऐसी भी अनौपचारिक तकनीकी शब्दावली हैं जिनके बारे में लेखक ने इस अंदाज़ में प्रयोग किया है कि आप इन्हें आसानी से समझकर औपचारिक शब्दों व्यक्त कर आगे काम में ला सकते हैं. चॉपर सिद्धांत, किल यॉर डार्लिंग्स जैसी शब्दावली और उनकी व्याख्या ऐसे ही संदर्भ हैं.
किताब के आख़िर में परिशिष्ट के अन्तर्गत “अक्सर पूछे जाने वाले सवाल” शीर्षक से 17 पृष्ठों का पाठ है. मैंने इसे पहले दो बीच से दो-तीन सवाल पढ़े और लगा कि पहले ही कही गयी बातों का दोहराव है लेकिन बाद में जब लगा कि ऐसा नहीं है तो शुरू से पढ़ना शुरू किया. ये वो सवाल हैं जो सिनेमा से जुड़े लोगों से अक्सर सभा-सेमिनारों या कक्षाओं में पूछे जाते हैं. लेखकद्वय इन सवालों का जवाब जिस अंदाज़ में देते हैं, ये उनकी अपनी दृष्टि है, आप चाहें तो उनसे असहमत हो सकते हैं किन्तु इनका महत्व इस रूप में है कि यह उन तमाम लोगों पर एक ऐसा प्रभाव पैदा करने का काम कर सकेंगे जिससे कि सिनेमा लेखक और निर्देशक के प्रति जो स्टीरियोटाइप किसी न किसी रूप में बन चला है, उन्हें बिना किसी शोर-शराबे के ध्वस्त करते हुए व्यावहारिक समझ पैदा हो. लेखक का जोर इस बात पर आख़िर-आख़िर तक बना है कि श्रम, निरंतर अभ्यास और ख़ुद के प्रति “क्रिटिकल एप्रोच” ये वो आधारभूत चीजें हैं जिनसे किसी भी स्तर पर समझौते नहीं किए जा सकते. आप इस किताब से गुज़रते हुए कुछ और नहीं तो कम से कम मीडिया एवं सिनेमा लेखन-अध्ययन के प्रति एक गंभीर और जिम्मेदार रवैया तो अपना ही सकते हैं जो कि अक्सर स्टारडम और मैं-मैं के शोर के बीच पीछे छूट जाता है. बतौर शिक्षक-मेंटॉर पाठ और जीवन-दृष्टि की समझ देते हुए अपने छात्रों की अपनी सोच (हेड स्पेस) को कैसे बेहतर मोड़ दिया जाय, इस किताब से गुज़रने के हर वो मास्टर सीख सकेंगे जो ज्ञान के नाम पर अपनी ज़िद और बात छात्रों पर थोपने का काम करते आए हैं.
और अंत में लेखकद्वय ने सिनेमा लेखन की दृष्टि से क्रमशः बीस भारतीय एवं अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्मों की सूची शामिल की है जिन्हें पाठक इस दिशा में उतरने से पहले पाठ के तौर पर देख-सुन लें. डायरी की तरह एक खाली पन्ना जोड़ दिया गया है जिसका मेरे हिसाब से बेहतर इस्तेमाल यह होगा कि पाठक लेखकद्वय को अपनी प्रतिक्रिया देने, शुक्रिया अदा करने के साथ-साथ यह अपील कर सकेंगे कि आप कुछ दिनों के लिए मेरे मेंटॉर बन जाइए. सिनेमा लेखन के लिए न सही, अपनी जैसी साफ-सहज जीवन दृष्टि कैसे बने, ये बताने-समझाने के लिए…