खेलती है बारिश
खेलती है बारिश
पहाड़ों, पेड़ों, नदी, नहरों के साथ
खेलती है बारिश
सड़कों, घरों, दरों-दीवारों के साथ
खेलती है बारिश
आसमान औ’ ज़मीन के साथ
खेलती है बारिश
गुड्डा-गुडियों का खेल
रचाती है, वह खेल
परिवार और संसार का
फिर कोई कुछ कहता है
कभी कोई कुछ भी नहीं कहता है
फिर तो बारिश
ख़ुद से खेलने लगती है
उछाल देती है, वह पेड़-पौधों को
भर देती है, नदी-नहरों को
कीचड़ बना देती है,
रास्तों, सड़कों, घरों, दरों-दीवारों को
ज़मीन को ढक देती है पानी से
आसमान को ओढ़ देती है कालिख से
उठा देती है, उछाल देती है
अपने गुड्डा-गुडियों को
उनके परिवार-संसार को
और फिर पटक देती है,
अपने ही पानी पर
खेलती है बारिश
हमारे-आपके आंखों के पानी से…
*
मेरी मां जैसी
दिल तो भरा-भरा था,
आंखें भी भरी-भरी
गोद में सर रखकर लेटी वह
बातें करती बड़ी-बड़ी।
उसके बालों में, रेशे-रेशे में
घूमती मेरी उंगलियां
वह मेरा ही हिस्सा
वह मेरी ही कोख-जाया
नन्हें-नन्हें कदमों से चलती
अब इतनी बड़ी कि
सात समुंदर पार उसके कदम,
समेट लेती वह मुझे अपनी बाहों में
और मेरे सर पर अपनी ठुड्ढी रखकर
कहती है—
कितनी छोटी-सी हो तुम
बिल्कुल छोटी-सी।
एक छोटे-से बच्चे जैसी।
उसकी आवाज़ में खनक
शब्दों में धनक।
और मुझे सचमुच लगने लगता है
कि सचमुच मैं छोटी हो गयी हूं
छोटी, नन्हीं-सी बच्ची
और उसके आगोश की वह ऊर्जा,
उस मजबूती को
मैं अपने में उतारना चाहती हूं
मैं भी बच्ची बनना चाहती हूं
चाहती हूं, वैसा ही हठ करूं
चाहती हूं, वैसी ही ठुनकती रहूं
चाहती हूं, वैसा ही गुस्सा करूं
अपनी बात मनवाने के लिए,
जैसा वह बचपन में किया करती थी,
जब वह बच्ची थी।
अब तो वह बड़ी-सी लगती है मुझे
बड़ी-सी!
मेरी मां जैसी।
*
आना ही होगा
कानों में आवाज़ तुम्हारी घोल लूं,
कुछ पल सुनकर ही
दिल अपना बहला लूं।
प्यार भरे कुछ एहसासों को नाम दो,
ताकि विरह की घडिय़ों में
सुकून पा लूं।
साथ बिताये पल हैं,
खिडक़ी पर खड़े
दस्तक सुनने से पहले
सामने तो हो लूं।
खट्टी मीठी यादों की रवानी को
मैं सीने में लूं भींच,
हृदय में उतार लूं।
आओगे, आओगे,
आना ही होगा,
झुकी पलकों से मैं
दिल को बुहार लूं…