१.
खिड़कियाँ
हमारे बीच के शून्य में
असंख्य खिड़कियाँ थीं,
जो खुलती थीं उस पार।
झाँककर देखने के बजाय
गिरने से डरकर
हमने तमाम खिड़कियों की सिटकनी चढ़ाई
और अपना-अपना एक छोटा सा आकाश लेकर बैठ गये।
हम ढूँढते रहे
बीच के किसी सुराख़ को खिड़की कहकर
उसपर लगी सिटकनी।
हमारे होंठ हालांकि नहीं सिले थे
किसी वक्ती धागे से,
फिर भी हमारे आकाशों के पंछी
हमारी देह की टूटी मुंडेर पर उतरे, बैठे और बिन चहके उड़ गये।
२.
अभी
एक आँसू देकर आ रहा हूँ
उस स्थान
जहाँ रोप रखी थी
सभी मुस्कुराहटें एक उदास समय की।
एक जगत था जो तब भी कहीं बचा था
जब सब विश्व जा रहा था अतल गह्वर में
– सभी ध्वनियाँ व्यय चुकने के बाद भी।
३.
मैंने जाना
(१.)
मैंने जाना कि जन्म लिया शिशु आँखें मींचकर
जब रोता है, छटपटाता है;
तब उसकी आँखों में भरे आँसू
किसी मधुर सरिता की बूँदें होते हैं
जो एक अज्ञात आयाम तय करके उसकी आँखों तक चले आते हैं।
उस समय उसकी दूधिया आँखों में उतरती है
दुनिया की सबसे सच्ची तस्वीर।
यह तस्वीर हालांकि वह किसी को दिखा नहीं पाता,
लेकिन जन्म लेकर आँखें मिचमिचाता वह शिशु
जान चुका होता है उस क्षण इस दुनिया के सभी गूढ़ सत्य।
वह जान चुका होता है कि जानने के क्रम में अब वह जब कुछ सीखेगा तो एक नया भ्रम ही सीखेगा।
सचमुच में कुछ सीखने के लिए उसे सब कुछ त्यागकर
छटपटाकर रोते हुए वापस शिशु ही होना होगा।
आँखें बंद कर लेनी होंगी उसे उन प्रपञ्चों की ओर से
जिन्हें उसकी ओर समय का सत्य कहकर फेंका गया होगा।
जब वह देख रहा होगा,
किसी नियत समय
उस समय तक प्राप्त सभी अर्थ
होते हुए गौण–
तब उसकी आँख के आँसू होंगे
उस पहले बादल की छींटें
पड़ती हुई उसकी दहती काया पर;
जिन्हें आरम्भ में पृथ्वी पर अतिरिक्त पानी के सन्देह में
प्रकृति द्वारा वापस पोंछ लिया गया होगा।
उसके होठों की निश्छल मुस्कुराहट
उस समय उसके भावसत्य की मुकुटमणि होगी, तब अज्ञात ही होगा उसका वैदूर्य।
२.
किसी को जानना कितना बड़ा भ्रम है
यह मैंने तब जाना
जब किसी को सारी उम्र जानने के बाद
यह भ्रम दूर हुआ कि मैं उसे बाल बराबर भी नहीं जानता था।
ज्ञात सत्य के प्रति
मेरा यह विचार और दृढ़ हुआ
कि अज्ञात ही अपने काल का सबसे बड़ा सत्य है
और सत्य ही सबसे बड़ा भ्रम।
४.
क्या ही
अच्छा होता, जो हम पार्क की किसी बेंच पर
एक दूसरे के पास बैठ
मीठे मौन में भीजते अज्ञात समय तक, और
पास पड़ी किसी सूखी पत्ती या टहनी उठाकर
संकोचवश उंगली और अँगूठे के बीच दबाकर नचाते…
कुछ न बोलते।
अच्छा होता, जो हम किसी शाम
नदी के किसी किनारे बैठ उसके जल में
धीरे-धीरे चप्पू की तरह चलाते पाँव और देखते चुपचाप उस पार किनारे बंधी कश्तियों के किनोरों पर उतरते सूरज को…
अच्छा होता जो हम जान जाते, कि
शब्द एक ऊब है, जो उग आती है मन के किनारों पर
और ढक लेती है एक दूसरे का अस्तित्व।
अच्छा होता जो हम
अबोले ही अन्धेरों में टटोलते एक दूसरे का हाथ और
पा जाते खुद को ही…
५.
सत्य के बराबर सा कुछ
जब मैं लिख रहा था
प्रेम में उसके होने के सबसे सच्चे अर्थ
हम झगड़ रहे थे
जीवन में अपने सबसे अच्छे अर्थों पर
और प्रेम की सबसे अंतिम पंक्ति
इस तरह खाली रह गई…
मैं रुका रहा प्रेम से सच निथारने की कोशिश में
वो तर्पण कर चली एक अधूरी कविता का;
भूलकर कि प्रेम का होना (अ)सत्य है
और न होना सत्य के ही बराबर सा कुछ…