ढूंढता हूं
किरमिच की गेंद
समय की झाड़ियों में
अब तक उठती है भाप
बचपन की परोसी थालियों से
कई वर्ष पीछे से खाता हूं डांट
और छिपता हूं दीवारों, किवाड़ों और पेड़ों के पीछे
मांझे से कटी उंगली से अब तक
खून की जगह ओस टपकती है
काटता हूं रेलगाड़ी के धुंए की पतंगें
भविष्य से गुज़रते हुए
वर्तमान को पार कर
अतीत में लौटूंगा
लौटकर
हाथ-मुंह धुलूंगा
पूरा करूंगा स्कूल का काम
गिरा लूंगा स्याही कपड़ों पर
इमले लिखूंगा
और बाक़ी रहे कामों के बनाऊंगा बहाने
आईने में देखा करूंगा तरह-तरह की शक़्लें
तोते-भालू-ऊदबिलाव-हाथी-शेर और मेमने जैसी
फिर मुड़कर अचानक
बकरियां चराने वाले से कहूंगा कि
ओ चरवाहे
सबसे पीछे छूटा है एक नन्हा मेमना
रास्तों से अनभिज्ञ और सफ़ेद रंग का
जाना है जिसे
पहाड़ी के उस पार
जहां असंख्य वृक्ष हिलते हैं
पूर्णविरामों की तरह।