तू ही है जग की धुरी, तुझ से ये संसार।१।
नारी तू तेजस्विनी, तेरे शत-शत रूप।
चंडी-दुर्गा-लक्ष्मी, अद्भुत दिव्य स्वरूप।२।
वैदिक युग में था बहुत, नारी का सम्मान।
राज , धर्म औ युद्ध में, ख़ूब हुआ गुणगान।३।
सीता-सावित्री कभी, कभी द्रौपदी रूप।
मैत्रेयी औ’ गार्गी, इसके विरल स्वरूप।४।
धरा ‘मेनका’ रूप जब, महकी बनकर इत्र।
हुई तपस्या भंग सब, बहके ‘विश्वामित्र’।५।
जब-जब नर ‘ख़िलजी’ हुआ, बनी ‘पद्मिनी’ नार।
आन रखी ‘जोहर’ किया, हार न की स्वीकार।६।
सुंदरतम कृति सृष्टि की, कोमल तेरा रूप।
कभी उज्ज्वला चाँदनी, कभी सुनहरी धूप।७।
दो-दो कुल को साधती, नारी करे कमाल।
संकट में नारी बनी, सदा पुरुष की ढाल।८।
माँ-बेटी-पत्नी-बहन, तेरे पावन रूप।
ढल जाती नारी सदा, रिश्तों के अनुरूप।९।
है जग में सबसे जुदा, नारी का क़िरदार।
ममता-करुणा-त्याग-तप, रोम-रोम में प्यार।१०।
प्रेम प्रेम बस प्रेम ही, है नारी की पीर।
हुई श्याम सँग राधिका, राँझे के सँग हीर।११।
नारी के बिन है कहाँ, घर आँगन की शान।
नारी है नर के लिए, ईश्वर का वरदान।१२।
नारी से संभव सभी, रंग-तीज-त्योहार।
रिश्ते-नाते-प्यार सब, नारी से गुलज़ार।१३।
जिस घर में होता नहीं, नारी का सम्मान।
उस घर का होता पतन, इसको निश्चित जान।१४।
नारी की इज़्ज़त जहाँ, करें देवता वास।
छाया रहता है वहाँ, हर्ष और उल्लास।१५।
शक्तिरूप नर का बनी, उज्ज्वल दिव्य स्वरूप।
कहलाई अर्द्धांगिनी, पूरक रूप अनूप।१६।
सारी दुनिया मानती, जिसका लोहा आज।
देता नहीं बराबरी, फिर क्यों उसे समाज।१७।
सह-सह कर अवहेलना, नारी निखरी ख़ूब।
दबी-रुँदी-कुचली मगर, रही हरी ज्यों दूब।१८।
पुरुषों ने पग-पग किया, नारी पर संदेह।
नारी ने विश्वास कर, सदा लुटाया नेह।१९।
क़दम-क़दम नारी चले, हर मुश्किल में साथ।
पुरूष-सफलता में रहा, नारी का ही हाथ।२०।
नारी है कोमल हृदय, अति संवेदनशील।
रखती नयनों में सदा, अश्कों की इक झील।२१।
सिसकन-सुबकन-घुटन ही, लिखी न तेरे लेख।
तोड़ कफ़स के सींखचे, तू भी उड़कर देख।२२।
सह कर सारी तल्ख़ियाँ, सदा लुटाती नेह।
समझा है नर ने मगर, नारी को बस देह।२३।
अबला से सबला हुई, ऊँची भरी उड़ान।
संघर्षों को झेलती, बढ़ी लक्ष्य को ठान।२४।
स्वर्णिम पृष्ठों से भरा, नारी का इतिहास।
फिर भी सहती आज तक, इस जग का उपहास।२५।
सदी चढ़ी इक्कीसवीं, लिए नई इक भोर।
नारी नभ पर छा रही, दिशा-दिशा चहुँओर।२६।
निज हक़ की ख़ातिर लड़ी, किया ख़ूब संघर्ष।
तब जाकर आख़िर हुआ, नारी का उत्कर्ष।२७।
नारी के प्रति आजकल, बदल रही है सोच।
पुरुषों की भी सोच में, आई है कुछ लोच।२८।
सीता बन सहती हुई, पत्थर-पानी-घाम।
नर-रावण के बीच में, खोज रही है राम।२९।
झाँसी की रानी बनो, करो शत्रु पर वार।
जैसे चंडी ने किया, महिषासुर संहार।३०।
घूँघट-चूनर-ओढ़नी, सेवा-लज्जा-शर्म।
समय लीलता जा रहा, इन शब्दों का मर्म।३१।
नर होने का तू कभी, करना मत अभिमान।
नारी ने ही तो दिय, तुझको जीवन दान।३२।
नारी पहुँची चाँद पर, लाँघे सागर-शैल।
गृहणी बन पिसती रही, ज्यों कोल्हू का बैल।३३।
प्रकृति के जैसा रहा, नारी का सौन्दर्य।
सहनशीलता से भरा, है धरती सा धैर्य।३४।
एक दूसरे के बिना, पूर्ण कहाँ नर-नार।
दोनों का रिश्ता कि ज्यों, इक लोहा इक धार।३५।
नारी के हिस्से फ़क़त, काम काम ही काम।
यूँ वो बेग़म पान की, यूँ वो हुक़्म-ग़ुलाम।३६।