(1.) पहाड़ी औरतें
पहाड़ी औरतें!
नज़दीक ब्याही गयीं
मगर दूर रहीं ताउम्र
वह पार करती रहीं
जिंदगी के उतार-चढ़ाव
टेढ़े-मेढ़े रास्तों की तरह.
पहाड़ी औरतें!
पीठ पर किलटा उठाती
सूखे पत्ते बटोरती
हरी घास काटती
मुस्करातीं रहीं
और उनके साथ
मुस्कराते रहे बान के जंगल
गाती रहीं घासनियां
और सीढियां चढ़ते रहे
हरियाये खेत.
पहाड़ी औरतें!
पतियों को मैदानों में भेजकर
खटती रहीं जंगल-जंगल
वो चुन्नी में बांधकर लाती रहीं
बच्चों के लिए…
काफल के गुलाबी दाने
काले-पीले आखरे
और तोड़ लाती रहीं
खिले हुए बुरांश के फूल.
पहाड़ी औरतें!
पशुओं को प्रेम देती रहीं
उनके भी नाम रखे गए
उन्होंने भी स्नेह पाया
उन्हें भी पुचकारा, दुलारा गया।
अपने बच्चों की तरह.
कपकपाती ठंड!
उनके गाल सहलाकर,
उनको लाली देती रही
भरोटे के बोझ तले उनकी गर्दन
नृत्य करती रही
हवाओं की ताल पर.
उनकी झुर्रियों से!
झांकता है अभाव में गुज़रा जीवन
संघर्ष की कहानियां कहते हैं
दरातियों के दिए घाव
और परेशानियों को मुंह चिढ़ाती है,
बुढ़ापे में सीधी तनी रीढ़.
(2.) यात्रा
मैं बारूदों से डरते-डरते
आग से डरने लगा हूं
मैं सिर्फ उतनी आग चाहता हूं
जो रोटी पका सके.
इसलिए मैं खोहों में
वह चकमक पत्थर ढूंढने निकला हूं
जिन्हें मेरे पुरखे भूल गए थे
यात्रा पर निकलने से पहले.
एक ऐसी यात्रा
जो आग जलाने से शुरू होकर
बारूदों तक आ पहुंची.
एक ऐसी यात्रा
जो पत्थर के हथियारों से होकर
जंगी सामान तक आ पहुंची.
एक ऐसी यात्रा
जो शिकारी होने से लेकर
आदमखोर होने तक ले आयी.
एक ऐसी यात्रा
जिसमें मेरे पुरखे जंगलों से होते हुए
शहर आ पहुंचे है
जो जंगलों से ज्यादा डरावने हैं।
(3.) अभिनय
मैं मौत से डरता हूं
बहादुरी के किस्से सुनाते हुए.
विद्वान दिखने के लिए
मैंने ढेर सारी किताबें खरीद रखी हैं.
मैं कविताएं लिखते हुए
शब्दों के संतुलन का खास ध्यान रखता हूं.
मैं जब दुःख देखता हूं
तो दुखी होने का नाटक करता हूं.
मैं लगातार अभिनय में हूं
मैं जो हूं वो मैं बिल्कुल नहीं हूं.
देखो न..!! आज भी..!
मैं मुर्दों के इस शहर में
जिंदा होने का अभिनय कर रहा हूं.
(4.) तुम्हारा यूं आना
मेरी उदास रातों में
तुम उग आयी हो-
किसी स्वप्न की तरह.
तुम्हारा यूं आना
इस सदी की भाषा में
सबसे बड़ी वर्जना है.
मैं तुम्हें साथ लेकर
किसी आदिम सभ्यता की ओर
लौट जाना चाहता हूं.
जहां सारी भाषाएं
सारी वर्जनाएं
और यहां तक कि ईश्वर भी
अभी गढ़े जाने के क्रम में है.
(5.) हम प्रेम में थे
हम प्रेम में थे-
हमने बादलों से प्रेम किया
और बारिशों में भीग गए.
जहां हम मिले थे-
वहां दूर तक घना जंगल था
हमने पेड़ लगाए-
और जंगलों से प्रेम किया.
हम इस प्रेम में-
रंग भरना चाहते थे
हम तितलियों के पीछे नहीं भागे
हमने फूल उगाए.
हम प्रेम में थे-
हमने रास्तों के पत्थर उठा लिये
हमने उनसे घर बनाए
और मूर्तियाँ तराशीं.
हम प्रेम में थे-
हम अपने हिस्से की मिटटी बचाना चाहते थे
हमनें उस मिटटी में
फसलें उगा लीं.
और अब..!
दुनिया के तमाम रंग
सिर्फ हमारे थे
क्योंकि हम
प्रेम में थे…!!
(6.) शिखर
मैं ऊँचाइयों को नापना चाहता था
और मैं शिखर की ओर दौड़ पड़ा
मुझे लगा!
मैं बहुत जल्द आसमान को अपने हाथों से छू लूंगा.
शिखर पर पहुँचकर भी-
सूरज उस आदिवासी लड़की की बिंदिया जितना छोटा था
जिसे मैं घाटियों में छोड़ आया था.
शिखर पर पहुंचकर-
बादल मुझे ऊनी बिछौनों जैसे लगे
जिनपर पूरा बचपन गुज़रा था
और जिनके रोयें-
आज भी मेरे जिस्म से चिपके पड़े हैं जहां-तहां.
मेरा कंठ सूख रहा था
और सारा पानी जमकर ठोस हो चुका था.
मैंने वापिस लौटना चाहा
किन्तु जंगल अब बहुत घने हो चुके थे
जिनसे रास्ते अवरुद्ध होने लगे थे.
पर मैं लौटना चाहता था
उस बिंदिया वाली लड़की के पास
उन ऊनी बिछौनों पर देर तक
सो जाना चाहता था…!
मैं पहाड़ के उस उतुंग शिखर पर खड़े होकर
बहुत ज़ोर से चीखा
मेरी चीखें घाटियों से टकरायीं
उन्हें सुनने वाला वहां कोई नहीं था
वह वापिस मुझतक आ गयीं.
मैंने बादलों के एक टुकड़े को
अपने हाथों में उठाकर अपनी प्यास बुझानी चाही
वह पिघलकर बूंद बना
और मेरे हाथों से फिसल गया.