पहचान
पशु पक्षी अपनी बोली बोलते हैं
पशु पक्षी अपनी बोली बोलते हैं
प्रेम करते हैं प्रकृति से
नदियों के बहते जल में अठखेलियाँ
करते हैं अपनी अपनी बोली में
मैं अपनी भाषा में
अतीत से कुछ जल अंजुरी में ले
वर्तमान की पगडंडी पर
चलते चलते भविष्य से
संवाद करती हूँ
भाषा से अभिमंत्रित जल
मिट्टी पर छिड़क
रोपती हूँ कुछ ध्वनियाँ
कि मैं मनुष्य हूँ
भाषा मेरी पहचान है
मेरे बाद सदियों तक
भाषा जिंदा रहे ताकि
मनुष्य जिंदा रहे
*
नदी और मैं
बॉंट रही हूँ भीतर की कस्तूरी
बॉंट रही हूँ भीतर की कस्तूरी
आँख खुली है जबसे
फलदार वृक्ष की भॉंति
सुकून, खुशी, छाया, फल देते हुए
नदी समेट लेती है कंकर
पत्थर, सब गंदगी
बहती रहती है निरंतर
अपने दुख अपने ही जल में छिपा
आँसू और फिर पानी
बना कभी सूखने नहीं देती स्वयं को
बॉंट रही हूँ अब तक मैं भी
सबकुछ समाप्त हो इससे पहले
इसके पहले कि मैं थक जाऊँ
मेरे होंठ भूल जाएँ मुस्कराना
मेरे भीतर का अंधेरा
गहराकर मुझे अपने आगोश में
समेट ले
मैं बॉंट देना चाहती हूँ
प्रेम का एक एक कण जैसे
रिमझिम बारिश की बूॅंदे
भिगो जाती है
किसी प्यासे का मन
दिन महीनों में
महीने सालों में बदल जाते हैं
मगर औरत का मन दूर कहीं
उसके घर की मुंडेर पर
बैठी चिड़िया में उलझा रह जाता है…