(एक)
जिन स्त्रियों ने मुझे प्रेम किया…
जिन स्त्रियों ने मुझे प्रेम किया
मेरे होंठ चूमे
भरी दोपहरी में मेरे माथे पर
उग आई पसीने की बूदों को
अपने नर्म आँचल से सुखाया
दुःख में मेरा हाल पूछा और
बदले में उन्हें झड़प सुनने को मिली
फिर भी बीमार हुआ तो
मेरे स्वस्थ होने की कामना की
और मेरी उदास आँखों को चूमकर रौशनी भर दी।
अपने हृदय का सारा वात्सल्य
उड़ेल दिया मेरे माथे पर जब
मैं भीतर ही भीतर खाली हो रहा था।
मैं सोचता हूँ इस शाम में वे कहाँ होंगी…!
ये पुकारती हवा जो मेरे कमरे के पर्दों से
गुफ्तगू करती है और वापिस लौट जाती है
इन्हें मालूम तो होगा पता उनका!
इस बोझिल साँझ में जब वक़्त
धीरे-धीरे मेरे कमरे से बाहर फिसल रहा है
ये खाली-खाली सी हवा,
सांस लेता हूँ तो हक्क से फेंफड़ों में लगती है
मैं सीने पे हाथ रखता हूँ,
कि दिल अपनी रफ़्तार से धड़क रहा है।
मेरी आँखों में एक पीलापन
जो बरसों से हैं, अब दिखने लग गया है।
कभी मेरे साथ कहकहा लगाती दीवारें
अब मेरी चुप्पी पर बिगड़ जाती हैं
पलस्तर चटक जाता है।
ज़रा सा निकलता हूँ बाहर तो एक अजीब सी गंध
भर जाती है मेरे नथुनों में
मैं अपने कमरे के अलावा
अब कहीं साँस नहीं ले पाता हूँ।
मैं सोचता हूँ जिन स्त्रियों ने मुझे प्रेम किया
उनके लिए मैं कुछ न कर सका।
सोचता हूँ कि एक दिन मैं उठकर सीधे
उनके पास चला जाऊँ और
उनकी नर्म हथेलियों पर गुदगुदा कर लिख दूँ प्रेम।
शायद इससे ज्यादा अब मेरे पास कुछ नहीं…!
(दो)
घर जाने में अब घर जैसा सुख नहीं रहा
घर जाने में अब घर जैसा सुख नहीं रहा।
पहले घर में घुसते ही
एक अजीब सा उतावलापन होता था
कि मैं बड़ी तत्परता से नजर फेर लूँ
कि सबकुछ यथावत है या नहीं।
और घर भी जैसे मेरी प्रतीक्षा में,
अपना सारा काम धाम छोड़ कर खड़ा हो।
आँगन में अलगनी पर माँ की साड़ी सूखती रहती
धुएँ से काले हुए रौशनदान ताकते रहते
कि जैसे मैं उन्हें पहचान रहा हूँ कि नहीं।
माँ गुनगुनाते हुए चावल बीनती दिख जाती।
गाना गुनगुनाते वक़्त माँ से कुछ कहो
तो वह तो बोलती नहीं थी।
कई बार कहो तो वह झुँझला जाती
माँ का झुँझलाना तब बहुत अच्छा लगता था।
शाम के वक़्त घर पहुँचो तो
पिता बाज़ार से सब्जी लाने गए होते
और कुछ ही क्षण में आ जाते
यह दृश्य इतना नपा तुला था
कि इसमें कुछ भी नयापन या अजीब नहीं दिखाई देता
चाहे जितनी बार बाहर से लौटकर घर जाओ।
अब चाहे जितनी बार घर जाओ
माँ चावल बीनते हुए दिखाई नहीं देती।
धुएँ से काले पड़े रौशनदानो को कोई फर्क नहीं
कि मैं उन्हें पहचान रहा हूँ या नहीं
पलस्तर जमी हुई काई के नीचे से मुझे
देखते हैं और चुप हो जाते हैं।
बाज़ार से सब्जी लाने जैसी अब कोई प्रक्रिया नहीं होती।
सब्जी वाला अब ठीक दरवाजे पर ही आ जाता है।
लगता है जैसे समूचा घर
एक सफेद चादर से ढक गया हो
और वे सारी चीज़ें जिन्हें मैं बड़े उतावलेपन से
ढूँढता रहता, उसके नीचे छुप गई हो।
घर जाने में अब घर जैसा सुख नहीं रहा।
घर जाने में अब डर लगता है
कि फिर मुझे लौट के आना है।
(तीन)
किसी के मरने की खबर कैसी मिलनी चाहिए…?
ठीक वैसे ही जैसे किसी के जन्म की खबर मिलती है
या फिर धीरे-धीरे
कि बीमार,
बहुत बीमार और फ़िर,
फलां अब नहीं रहे!
या फिर धीरे-धीरे पेड़ों को सूख जाना चाहिए,
हवाओं को अचानक से रुक जाना चाहिए
जैसे अचानक से साँस रुक जाती है।
फिर कोई नब्ज टटोलकर धरती से कहे कि
अभी रुको
तुम नहीं चल सकती,
कोई मर गया है।
इसी पृथ्वी का वासी था।
या अचानक से कोई ये कहे कि
पिता मर गए!
फिर जोर से चिल्लाकर कहे कि
वे मर गए।
मैं आसपास की चीज़ों से कहूँ
कि पिता मर गए!
तुम सुन रहे हो पिता मर गए हैं।
मुँह बाँधी हुई स्त्री संगीत से थोड़ा विमुख होकर
मुझे देखे और कहे
हाँ शायद सचमुच मर गए हो,
पर मरने की खबर ऐसी नहीं मिलनी चाहिए।
मैं पूछता हूँ
मरने की खबर कैसी मिलनी चाहिए?
(चार)
इस शहर से बाहर जाते हुए
एक दिन अचानक
इस शहर से बाहर जाते हुए
मन हुआ कि अब वापिस नहीं लौटूँगा।
कभी नहीं लौटूँगा,
हमेशा के लिये ही नहीं लौटूँगा।
लेकिन अगले ही पल य़ह सोचकर
मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई कि
अगर यहाँ न लौटा तो जाऊँगा कहाँ?
ले दे के यही तो एक जगह है पूरी दुनिया में
कि जहाँ घर है मेरा।
बाहर की उस दुनिया में
शायद सब्जीवाला न हो!
बन नीम का पेड़,
मुसद्दी के पान की दुकान
कहीं ये भी न हो!
बाकी अगर हो भी
तो मुसद्दी के पान की दुकान तो यक़ीनन न होगी।
नहीं होने के लिए कुछ भी नही हो सकता है।
जैसै मैं घर न लौटूँ तो बत्ती बुझाने और
बाजार से सब्जी लाने के लिये कोई नहीं होगा।
मेरा भीतर एकदम निरुत्तर हो गया!
हालाँकि बाहरी दुनिया में यहाँ से दूर
बहुत खुश था मैं मगर
मुसद्दी के पान की दुकान ने
शायद रोक लिया मुझे।
ऐसी जाने कितनी चीजें है
जो मुझे रोकती रहती हैं
इस शहर से बाहर जाने के लिए।
हार-पाछ कर मैं उठा,
बुशर्ट से बाहरी दुनिया को झाड़ते हुए
ठीक उसी पुराने रास्ते पर आ गया।
अभी कुछ दूर चला ही था कि
साथ चलते हुए मेरे मित्र बुदबुदाए
“फिर से आदमी दिखने लग गए”
मैं समझ गया! कि
मैं वापिस लौट आया हूँ शहर में।
(पाँच)
मेरी भाषा क्या है…?
एक शाम निरभ्र आकाश की ओर
मुँह किए लेटा हुआ मैं सोच रहा था
कि मनुष्य के प्रबुद्ध होने का
प्रमाण क्या हो सकता है?
आख़िर कोई तो होगा जो गवाही देगा!
तभी एक टिटिहरी अपनी भाषा में
उत्सव मनाते हुए मेरे ऊपर से निकल गई।
पास के शिरीष पर एक कौए ने अँगड़ाई ली
और अपनी भाषा में अपनी बात कह दी।
मैंने देखा कि एक कोयल
जिसे सुनने वाला कोई नहीं
वो आधी रात से लगातार अपनी बात कहे जा रही है।
अब मैं सकपकाया!
पार्क में मेरे समानांतर बैठी एक कुतिया ने मुझे देखा
जैसे मेरी हालत भाँप ली हो और पूछ रही हो-
तुम इतने मौन क्यों हो?
तुम्हारी भाषा क्या है…? कविवर!
मैं उठा और बेंच पर बैठ गया
और अपनी अकड़ी हुई जीभ के बारे में
सोचते हुए बुदबुदाया…!
आख़िर मेरी भाषा क्या है…?
(छह)
और कितना कम होता जा रहा हूँ
दुनिया भर की रातों का कालापन
मेरी आँखों के नीचे जमा हो गया है।
मेरे चेहरे की त्वचा सूखने लग गई है अब।
ये आईना झूठ तो नहीं बोल सकता…
कल तक मेरे भीतर का युवा
इसी आईने में देखता था
प्रेमिका के चूम लिए गए कपोल,
ओठों को छूकर फूले नहीं समाता था।
आज इन्हीं होंठो पर सिगरेटों के काले धब्बे हैं,
अनगिनत बोले गए झूठ के दाग जमे हुए हैं।
जाने कितनी महत्वाकांक्षाओं का बोझ
जमकर पीला पड़ गया है
इन आँखों की पुतलियों में।
मुझे नहीं लगता ये आईना झूठ बोल रहा है…
मैं पिछले कई दिनों से
उँगली पर रोजाना गिनता रहा हूँ हिसाब,
रातों को जोड़ता रहा हूँ तमाम फायदे नुकसान,
वर्गीकरण की पद्धति में छाँटता रहा हूँ चीजों को।
एकाएक चौंक उठता हूँ मैं
रात जब मध्य में होती है।
मुझे दिखती है गली में उठती धुंध
जिसमें से बाहर आता
एक नया नया जवान हुआ लड़का।
जिसकी चमकती आँखें जिज्ञासा से भरी हुईं
हज़ारों सवालों के जवाब जानना चाहती हो जैसे।
मैं उठता हूँ, आईने में देखता हूँ और मुझे लगता है
हर रोज़ मैं खुद में कितना, कितना
और कितना कम होता जा रहा हूँ।
(सात)
यह जीवन एक प्रक्रिया का नाम है
मेरी पीठ पर अपने ही पंजों के निशान हैं
जो वक्त दर वक़्त
गहरे और भी गहरे हो चले हैं।
दीवारों पर बिखरी हुई ये सब्ज बेलें
जो कभी किसी कि याद में उग आई थीं
उदास आँखों से देखती रहती हैं अब मुझे।
मेरे इर्द-गिर्द संबंधों-अनुबंधों के वितान
इतने वृहद हैं कि इक ज़रा सी ढील पड़ जाए
तो बुनावट में कहीं कोई धागा छूट जाता है।
शायद यह वक़्त का मेरे ख़िलाफ़
कोई षड्यंत्र भी हो सकता है कि
सब कुछ साथ होते हुए भी वह
मेरी मुठ्टी से तेजी से फिसलता जा रहा है।
मैं जानता हूँ कि यह एक मृग मरीचिका ही है
जो सुबह से शाम तक की
अनवरत यात्रा में मुझे शामिल किए है।
यहाँ साँझ का संगीत थोड़ा उदासी भरा तो है
लेकिन मौन के साथ घुला हुआ है।
आसपास सिगरेट के धुँए भी है
लेकिन मुझे साँस लेने में कभी कोई दिक्कत नहीं हुई।
मैं अपनी इस दुनिया के बारे में सोचता हूँ
कि वह क्या कुछ है जो सबकुछ होते भी नहीं है!
कि जिसके न होने से एक हिस्से का खालीपन
पूरा का पूरा दिख रहा।
मुझे लगता है यह जीवन
ठीक उसी प्रक्रिया का नाम है
जिसमें पहले चीजें भरती हैं
और धीरे-धीरे एक-एक करके
सबकुछ खाली होता जाता है।