(1)
जानकी
वो जो करुणानिधान कहलाते हैं…
अन्तस में जिन्हें…
शिव पाते हैं…!
जिनके चरणों की महिमा को…
वेद पुराण भी गाते हैं…!
वो ‘राम’
हृदय की शोभा हों…
उनको आवाज लगाते हैं!
उनके वामांग सुशोभित जो…
‘सीता’ विख्यात नाम उनका
उमा, इन्दिरा, ब्रह्माणी सब
उनको शीश नवाते हैं…
उनका गुण शील अकथनी है…
आओ फ़िर भी कुछ गाते हैं!
जानकी…!
अतिशय प्रिय करुणानिधान की…
जनक दुलारी नाम ‘जानकी’,
वो बार-बार दोहराते हैं!
आओ हम दृष्टि ‘राम’ की ले…
सीता की कविता गाते हैं!
करुणानिधान की विरह व्यथा का,
सीता को सन्देश सुनाते हैं!
(2)
दुर्दिन
हा! दुर्दिन!
भिन्नाभिन्न आभूषणों से
सर्वदा अलंकृत रहने वाली
आज वंचित है
सौभाग्य चिन्हों से भी
यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है?
यही विचार आया…
पुष्पों को गूँथ कर
बनायी गयी पायल को
जानकी के चरणों में बाँधते हुए
और… दो अश्रु बिन्दु
धो गए
जानकी के चरण;
राम का अन्तःकरण।।
(3)
सुनो जानकी!
मैं, तुम्हें…
सर्वदा साथ पाना चाहता हूँ!
परन्तु विवश हूँ…
कह नहीं सकता…!
मर्यादा का पालन भी सरल नहीं!
हाँ, मर्यादा का प्रथम अनुपालन…
परिवार में ही किया जाता है…!
सम्बन्धी स्त्रियाँ ही…
सामाजिक स्त्रियों के प्रति…
व्यवहारिक पाठ पढ़ाती हैं!
पत्नी भी एक शिक्षिका है…!
सबकी शिक्षा वह… जो करना है…
पत्नी सिखलाती…
जो कभी नहीं करना…!
स्त्रियाँ सच्ची गुरु होती हैं…
पुरुष को सांसारिक ज्ञान देती हैं…
समाज में रहने की विधा देती हैं…!
जीवन के ऊबड़ खाबड़…
पथ पर चलना…
धीरे धीरे सिखला देती हैं..!
निश्छल प्रेम प्रदान करो तो…
कैवल्य धाम पहुँचा देती हैं!
(4)
निष्काम
राम! को श्रीराम! कर दे,
प्रेम से निष्काम कर दे।
‘जानकी’ संज्ञा उसी की,
जो धरा को धाम कर दे।।
धरा उपजी धीर बनकर,
नारि मन की पीर बनकर।
बेड़ियों में बॅंधे जन की,
टूटती जंजीर बनकर।।
जो चले पिय प्रेम पथ वह;
एक मनुज भगवान कर दे।
‘जानकी’ संज्ञा उसी की, जो धरा को धाम कर दे।।
लिख सकेगा कौन उसको
गा सके बस मौन उसको।
कौन है समरथ जगत में,
जानकी का ज्ञान जिसको।।
नर को पुरुषोत्तम बनाकर;
जो जगत कल्याण कर दे।
‘जानकी’ संज्ञा उसी की, जो धरा को धाम कर दे।।
तत्व बिनु सम्पूर्ण जाने,
तथ्य को कैसे बखाने।
मान दे, कर दे समर्पण,
रूप उसके सब सुहाने।।
स्वरा, गौरा, जया, राधा,
रुक्मिणी को बाम कर दे।
‘जानकी’ संज्ञा उसी की, जो धरा को धाम कर दे।।
जनन का है हेतु सीता,
मध्य सागर सेतु सीता।
हल की सीता से जनक को,
निधि मिली उज्ज्वल पुनीता।।
एक वनवासी कुँअर को;
जो नयन अभिराम कर दे।
‘जानकी’ संज्ञा उसी की, जो धरा को धाम कर दे।।
(5)
विरहिणी
राम तुम जो करो, वह समीचीन है;
जानकी सर्वदा राम आधीन है।
मीठा मीठा तुम्हारा हर एक कृत्य है,
बाकी संसार सागर सा नमकीन है।।
ये विरह-वेदना, उर का संताप ये;
एक उल्लंघन का कैसा हुआ पाप ये!
जल रही हूँ विरह की
दुस्सह अग्नि में;
राख होती नहीं
कैसा है ताप ये।
किस तरह माप दूँ,
निज हृदय की व्यथा;
जानकी तट तड़पती हुई मीन है।
जानकी सर्वदा राम आधीन है…।।
नाथ शृंगार अंगों के सब तज दिए;
सब अलंकार रस्तों में बिखरा दिए।
तुम उन्हीं का करो
अनुसरण हे करुण;
जानकीनाथ सुधि
जानकी लीजिए।
कीजिये नाथ!
अब तो कृपा कीजिये;
प्रेम पथ में प्रभु! क्यों उदासीन हैं।
जानकी सर्वदा राम आधीन है…।।
आइए नाथ! हर! की शपथ दे रही;
चूक जो भी हुई, भूल कर आइए।
हर के हर क्लेश
हर भक्त रावण का हरि;
जानकी हित में
लंका विजय पाइए।
दे रही तुमको आवाज
परिणय-प्रिया;
स्वर्ण-नगरी ये रस-रंग तल्लीन है।
जानकी सर्वदा राम आधीन है…।।
(‘जानकी’ संकलन से)