आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा जयंती (10 अक्टूबर) पर विशेष आलेख
डॉ. रामविलास शर्मा हिन्दी के प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक विचारक, भाषाविद् एवं कवि हैं। डॉ. रामविलास शर्मा ‘हिन्दी के प्रहरी’* हैं। हिन्दी आलोचना में उनका उदय ‘प्रेमचंद’(1941) के मूल्यांकन के साथ होता है। डॉ. शर्मा पर एक इल्जाम है जिससे बाकी आलोचक बरी किये जाते हैं वह यह कि उन्होंने ध्वंसात्मक आलोचना की है। इस सवाल के जवाब के साथ ही उनकी आलोचना क्षेत्र में प्रवेश की भूमिका को समझा जा सकता है। संक्षेप में इस प्रवेश के कारण को समझ लेते हैं।
प्रगतिशील आंदोलन की शुरूआत 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन के साथ होती है। माना कि प्रगतिवादी आंदोलन का सम्बन्ध मार्क्सवाद से है। पर क्या जिन वैचारिक प्रवृत्तियों के समुच्चय का नाम मार्क्सवाद है, वह कार्ल मार्क्स से पहले मौजूद नहीं थी? बिल्कुल थी। इस बात को ठीक-ठीक न समझने के कारण कुछ आलोचक प्रगतिशील दृष्टिकोण को प्राचीन साहित्य एवं संस्कृति का विरोधी समझते हैं। मान लिया कि ‘मार्क्सवादी दृष्टि मूलतः सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टि है। वह किसी वस्तु का अध्ययन देश-काल के परिप्रेक्ष्य में करती है। विचेच्य में अन्तर्विरोधों का विश्लेषण करके वैज्ञानिक ढंग से प्रतिक्रिया और प्रगति के तत्त्वों को अलग-अलग छाँटती है।’
परन्तु ‘साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है।’ और वह ‘अप्रिय अवस्थाओं का अन्त कर देना चाहता है।’ प्रेमचन्द के इस उद्बोधन से स्पष्ट है कि जो प्रगतिशील नहीं वह साहित्यकार नहीं।
प्रेमचन्द ने साहित्यकार को स्वभावतः प्रगतिशील बताया तो इस प्रगतिशीलता का लक्षण भी बताया कि- वह अप्रिय अवस्थाओं का अंत कर देना चाहता है।
प्रगतिवादी आंदोलन के कुछ आलोचक यह समझ बैठे कि वाल्मीकि कालिदास और तुलसीदास प्रगतिशील नहीं हो सकते थे, क्योंकि वे मार्क्सवादी नहीं थे, यह हास्यास्पद है उनकी इस संकीर्णता का एक उदाहरण देखिए- ‘‘भारतीय साहित्य, पुरानी सभ्यता के नष्ट हो जाने के बाद से जीवन की यथार्थताओं से भागकर उपासना और मुक्ति की शरण में जा छिपा है। नतीजा यह हुआ कि वह निस्तेज और निष्प्राण हो गया है, रूप में भी और अर्थ में भी। और आज हमारे साहित्य में भक्ति और वैराग्य की भरमार हो गई है। भावुकता ही का प्रदर्शन हो रहा है, विचार और बुद्धि का एक प्रकार से बहिष्कार कर दिया गया है। पिछले दो सदियों में विशेषकर इसी तरह का साहित्य रचा गया है जो हमारे इतिहास का लज्जास्पद काल है।’’ यह कथन प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा पत्र से है। यह घोषणा-पत्र 1935 ई. में तैयार किया गया था और उस समय तक नजरुल, रवीन्द्रनाथ, निराला, प्रेमचंद, इकबाल साहित्य में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हो चुके थे और तो और उर्दू में हाली का मुसद्दस तो बहुत पहले ही लिखा जा चुका था।
हिन्दी के घोषित प्रगतिशील आलोचक शिवदान सिंह चौहान ने ‘विशाल भारत’ (1937) में एक लेख लिखा- ‘भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता’। प्रस्तुत लेख में उनका बयान देखें कैसे हिंदी साहित्य के चारों कालों को एक साथ ध्वस्त करने में आतुर दिख रहे हैं। ‘‘भक्ति-काल में भी केवल आत्मसमर्पण, भक्ति में तल्लीनता आदि भाव ही हमारे तुलसी, सूर आदि के साहित्य में भरे पाये थे। उनके बाद रीतिकाल में विचारधारा तो दूर, हमारे कवि, कविताबद्ध कोकशास्त्र लिखने लगे। उनसे इस अद्योगति के अलावा और उम्मीद भी क्या की जा सकती थी, और वर्तमान काल में भी किसी स्वस्थ विचारधारा का नाम नहीं।’’ जाहिर है शुरूआती प्रगतिशील आलोचक अपनी परम्परा का उचित मूल्यांकन नहीं कर सके थे। इन्होंने इतना कूड़ा-कचड़ा आलोचना के नाम पर फैला दिया था कि रामविलास शर्मा को कविता लिखना छोड़ आलोचना के मैदान में आना पड़ा। फिर क्या! नव निर्माण के लिए उन्होंने शुरुआत में ध्वंसात्मक आलोचना की। नव-निर्माण के लिए पहले ध्वंस प्रकृति का ही नियम है।
आचार्य शुक्ल ने ‘ध्वंस’ के संदर्भ में लिखा था- ‘ध्वंस जब नये निर्माण के लिए आवश्यक होता है, तब उसकी भीषणता भी सुन्दर होती है। लोक की पीड़ा, बाधा, अन्याय, अत्याचार के बीच दबी हुई आनन्द- ज्योति भीषण शक्ति में परिणत होकर अपना मार्ग निकालती है और फिर लोक-मंगल और लोक-रंजन के रूप में अपना प्रकाश करती है।’
रामविलास शर्मा की साहित्यिक मान्यताएँ:
डॉ. रामविलास शर्मा ने अपने निबन्धों में साहित्य, कला सौन्दर्य और आलोचना सम्बन्धी विचार प्रस्तुत किये हैं। इन विचारों का सामंजस्य उनके द्वारा की गई व्यावहारिक आलोचना में दिखाई देता है।
‘आस्था और सौन्दर्य’ में उन्होंने कला के सम्बन्ध में अपनी मान्यताएँ स्पष्ट की है। उनके अनुसार ‘कला की विषयवस्तु न वेदान्तियों का ब्रह्म है, न हेगल का निरपेक्ष विचार। मनुष्य का इन्द्रियबोध, उसके भाव उसके विचार, उसका सौन्दर्यबोध कला की विषयवस्तु है।’
यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ‘डॉ. शर्मा कला और साहित्य में भेद नहीं मानते हैं। इसलिए उनका उपर्युक्त कथन कला और साहित्य दोनों के सम्बन्ध में मान्य समझा जाना चाहिए।’
साहित्य के तत्त्वों की परिवर्तनशीलता पर रामविलास शर्मा लिखते हैं- ‘साहित्य के सभी तत्त्व समान रूप से परिवर्तनशील नहीं है, इन्द्रियबोध की अपेक्षा भाव और भावों की अपेक्षा विचार अधिक परिवर्तनशील है। युग बदलने पर यहाँ विचारों में अधिक परिवर्तन होता है, वहाँ इन्द्रियबोध और भाव-जगत् में अपेक्षाकृत स्थायित्व रहता है।’
डॉ. रामविलास शर्मा मनुष्य और साहित्य को समाज-सापेक्ष मानते हैं। वे साहित्य के शिल्प और रूप पक्ष को भी सामाजिक विकास से प्रभावित मानते हैं- ‘‘साहित्य का शिल्प, उसके विभिन्न रूप, सामाजिक विकास से ही सम्भव हुए हैं। जनता तक साहित्य पहुँचाने के साधनों में जो परिवर्तन हुए, उनका प्रभाव उनके रूपों पर भी पड़ा।’’
डॉ. शर्मा साहित्य में वस्तु और रूप के सम्बन्ध में हमेशा निर्णायक भूमिका विषयवस्तु को ही मानते हैं। वे लिखते हैं- ‘कला और विषयवस्तु दोनों ही समान रूप से साहित्य-रचना के लिए निर्णायक महत्त्व की नहीं है। निर्णायक भूमिका हमेशा विषयवस्तु की ही होती है।’ साहित्य में भाषा के महत्त्व को प्रतिपादित कर अपना आलोचक धर्म निभाने वाले आलोचकों से डॉ. शर्मा अपनी असहमति प्रकट करते हुए लिखते हैं-
‘‘आजकल कुछ आलोचक साहित्य की विषयवस्तु की विवेचना से बचने के लिए भाषा की चर्चा करना यथेष्ट समझते हैं। वे तर्क भी देते हैं कि साहित्य में विषय-वस्तु को भाषा से अलग नहीं किया जा सकता इसलिए भाषा की चर्चा करना ही काफी है। इसके विरोध में कहा जा सकता है कि जब दोनों में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है, तब विषय-वस्तु की चर्चा भी प्रयाप्त हो सकती है, चर्चा के लिए भाषा ही क्यों चुनी गई। कारण यह कि ऐसे लोगों के लिए भाषा और विषय-वस्तु का प्रगाढ़ सम्बन्ध, साहित्य की विषय-वस्तु उसकी भाव-विचार सम्पदा को नकारने के लिए है, वे यान्त्रिक दृष्टि से भाषा का रूपात्मक विवेचन करते हैं।’’
रामविलास शर्मा की साहित्यक मान्यताओं पर गोस्वामी तुलसीदास और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का प्रभाव है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी वस्तु को भाषा से श्रेष्ठ बताया था। उनकी पंक्ति है-
‘भनिति भदेस वस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी।।’
डॉ. रामविलास शर्मा साहित्य में विचारों के साथ भाव को भी मानते हैं। उनके लिए विचारधारा साहित्य का पयार्य नहीं है। उन्होंने लिखा है-
‘साहित्य की शुद्ध विचारधारा का रूप नहीं हैं, उसका भावों और इंद्रियबोध से घनिष्ठ संबंध है।’
अब रामचन्द्र शुक्ल के विचार देखें। रामविलास जी पर उनका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
आचार्य शुक्ल ने ‘चिंतामणि’ (प्रथम भाग) के निवेदन में लिखा- ‘इस पुस्तक में मेरी अंतर्यात्रा में पड़ने वाले कुछ प्रदेश हैं। यात्रा के लिए निकलती रही है बुद्धि, पर हृदय को भी साथ लेकर।’
डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचना-सिद्धांत:
डॉ. रामविलास शर्मा ने प्राचीन समाज और साहित्य का मूल्यांकन करने की मार्क्सवादी पद्धति की व्याख्या करते हुए लिखा, ‘‘यह आवश्यक नहीं कि शोषक वर्ग ने जिन नैतिक अथवा कलात्मक मूल्यों का निर्माण किया है वे सभी शोषण मुक्त वर्ग के लिए अनुपयोगी हों — प्राचीन साहित्य के मूल्यांकन में हमें मार्क्सवाद से यह सहायता मिलती है कि हम उसकी विषयवस्तु और कलात्मक सौन्दर्य को ऐतिहासिक दृष्टि से देखकर उनका उचित मूल्यांकन कर सकते हैं।’’
आलोचक के रूप में डॉ. रामविलास शर्मा उसी रचना को महत्त्व देते हैं जो वस्तुवादी चिंतन पर आधारित हो। उनके अनुसार आलोचक वही है जिसने द्वंद्वात्मक पद्धति का सहारा लेकर विषयवस्तु का विश्लेषण किया हो। उसने रचनाकार की सीमाओं की भी पहचान की हो तथा वह रचना में प्रगतिशील और विकासमान तत्त्वों को पहचान कर उसे सामने ला सका हो।
इन्हीं प्रतिमानों के कारण आचार्य शुक्ल उनके आदर्श आलोचक है। शुक्लजी की आलोचना पद्धति की प्रशंसा करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं-
‘‘शुक्लजी की आलोचना गम्भीर है, इसलिए कि उसका आधार वस्तुवादी दृष्टिकोण है। शुक्लजी की गम्भीरता का दूसरा कारण उनकी तर्क और चिन्तन पद्धति है। इस पद्धति को हम द्वन्द्व नाम दें तो अनुचित न होगा। विरोधी लगने वाली वस्तुओं का सामंजस्य पहचानना, उन्हें गतिशील और विकासमान देखना, संसार के विभिन्न भौतिक और मानसिक व्यापारों का परस्पर सम्बन्ध स्थापित करके उनका अध्ययन करना इस पद्धति की विशेषताएँ हैं।’’
डॉ. रामविलास शर्मा का आलोचना कर्म:
डॉ. रामविलास शर्मा की आलोचना में एक बात जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है वह यह है कि उन्होंने उसी साहित्यकार को महत्त्व दिया जिसकी रचना का स्वर जनवादी है और उसकी रचनाओं में जनता का जातीय साहित्य बसता हो। भारतेन्दु-युग के रचनाकारों की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लिखा- ‘‘भारतेन्दु युग का साहित्य हिन्दी-भाषी जनता का जातीय साहित्य है, वह हमारे जातीय नवजागरण का साहित्य है। भारतेन्दु युग की जिन्दादिली, उसके व्यंग्य और हास्य, उसके सरल-सरस गद्य और लोक-संस्कृति से उसकी निकटता से सभी परिचित हैं। ये उसकी जातीय विशेषताएँ हैं। अंग्रेजी साम्राज्यवाद और अंग्रेजी साहित्य एक ही वस्तु नहीं है। भारतेन्दु युग के साहित्य ने न केवल अंग्रेजी से वरन् बँगला साहित्य से भी प्रेरणा पायी है। लेकिन उसके साहित्य की जड़े इसी धरती में हैं और ऊपर बताई हुई उसकी जातीय विशेषताएँ उसकी अपनी हैं, मौलिक हैं।’’
भारतेन्दु-युग में डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘यह दिखाया कि हिन्दी में नवीन चेतना किन व्यक्तियों और संस्थानों के माध्यम से विकसित हो रही थी। कौन-सी परिस्थितियाँ उस चेतना के विकास का कारण थीं और विकास के दौरान, परिस्थितियाँ भी किस प्रकार प्रभावित होकर बदल रही थी। साहित्य इस विकास-प्रक्रिया की केवल तटस्थ झाँकी ही नहीं प्रस्तुत कर रहा था बल्कि सक्रिय सहयोग कर रहा था। यह भारतेन्दु-युग की बहुत बड़ी विशेषता थी।’
रामविलास जी ने 1857 की क्रांति के महत्त्व को हिन्दी साहित्य से जोड़ा। और आगे उसका प्रभाव कैसे निराला तक पड़ा इसे दर्शया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा- ‘‘जो नवजागरण 1857 के स्वाधीनता संग्राम से आरंभ हुआ, वह भारतेन्दु युग में और व्यापक बना, उसकी साम्राज्य-विरोधी, सामंत-विरोधी प्रवृत्तियाँ द्विवेदी युग में और पुष्ट हुई। फिर निराला के साहित्य में कलात्मक स्तर पर तथा उनकी विचारधारा में ये प्रवृतियाँ क्रांतिकारी रूप में व्यक्त हुई।’’
हिन्दी नवजागरण का महत्त्व आधुनिक काल के साहित्य के निर्माण में तो सहायक रहा ही है। खुद रामविलास शर्मा के संपूर्ण चिंता में नवजागरण संबंधी मान्यताएँ सजग रही है। डॉ.मैनेजर पाण्डेय ने इस तथ्य को स्वीकार किया है। उन्हीं के शब्द हैं- ‘‘हिन्दी समाज, हिंदी भाषा और हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल से संबंधित रामविलास शर्मा के संपूर्ण चिंतन और लेखन के केन्द्र में है उनकी हिंदी नवजागरण की अवधारणा चाहे 1857 का स्वाधीनता संग्राम हो या हिंदी जाति की धारणा, चाहे हिंदी में आधुनिकता के उदय का सवाल हो या हिंदी-उर्दू के संबंध का, चाहे देश में राजनीतिक चेतना के जागरण का प्रश्न हो या समाज सुधार का, इन सभी प्रश्नों पर विचार करते हुए वे हिंदी नवजागरण संबंधी मान्यताओं को ध्यान में रखते हैं।’’
महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग को डॉ. रामविलास शर्मा रीति-विरोधी क्रान्ति के रूप में देखते हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरानी सामन्तवादी व्यवस्था एवं अंग्रेजी साम्रज्यवाद के विरुद्ध थे। वे इन व्यवस्थाओं से देश को मुक्त कराना चाहते थे। रामविलास शर्मा ने द्विवेदी-युग के इस महत्त्वपूर्ण योगदान को रेखांकित किया। रामविलास शर्मा के अनुसार द्विवेदी युग ने छायावाद और प्रगतिवाद और आधुनिक साहित्य का मार्ग प्रशस्त किया हैै। उन्होंने लिखा- ‘‘साहित्य में जो रीति-विरोधी क्रान्ति शुरू हुई उसका पहला चरण है द्विवेदी युग और उसी का विकास छायावाद और प्रगतिवाद में होता है। ये तीनों युग एक दूसरे से भिन्न हैं, साथ ही एक दूसरे के पूरक भी हैं। द्विवेदी युग की भूमिका आधुनिक साहित्य का मार्ग प्रशस्त करने वाले अग्रदल की भूमिका है।’’
डॉ. रामविलास शर्मा के आदर्श आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं। रामविलास शर्मा ने ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना’ नामक पुस्तक शुक्लजी को केन्द्र में रख कर लिखा है। इस पुस्तक के लिखने का एक बहुत बड़ा कारण शुक्लजी पर लगे आक्षेपों का मुहँतोड़ जबाव देना भी रहा है। क्योंकि इस पुस्तक में प्रकाशन से पहले शुक्लजी पर कुछ प्रगतिशील आलोचकों ने कड़े हमले किये थे। इस पुस्तक से ‘पूर्व तक हिन्दी में ऐसी हवा बह रही थी कि लोग पं. रामचन्द्र शुक्ल के विचारों का विरोध करना अपनी आलोचनात्मक प्रतिभा का परिचय देना समझते थे। इस दिशा में कई साहित्य सेवियों का उत्साह आवश्यकता से अधिक बढ़ गया था। दुर्भाग्यवश जो लोग अपने को शुक्लानुवर्ती कहते थे और शुक्लजी के विचारों का विरोध करने वालों का विरोध करते थे, वे शुक्लजी की साहित्य-सेवा की महत्ता को प्रकट करने में असमर्थ थे।’
जाहिर है कि शुक्लजी की विरासत का मूल्यांकन और उसकी रक्षा के लिए डॉ. रामविलास ने यह पुस्तक लिखी। रामविलास शर्मा की अन्य पुस्तकें ‘अपने क्षेत्र की अद्वितीय पुस्तके हैं। लेकिन उन पुस्तकों में भी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्थान बहुत ऊपर है। पूरी पुस्तक बहुत परिश्रम से और बहुत धैर्य से लिखी गई है। पूरे साहित्येतिहास का परिप्रेक्ष्य इसमें आता है।’
डॉ. रामविलास शर्मा ने इस पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में शुक्लजी के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए लिखा- ‘‘हिन्दी साहित्य में शुक्लजी का वही महत्त्व है जो उपन्यासकार प्रेमचन्द या कवि निराला का। उन्होंने आलोचना के माध्यम से उसी सामन्ती संस्कृति का विरोध किया जिसका उपन्यास और कविता के माध्यम से प्रेमचन्द और निराला ने। शुक्लजी न तो भारत के रूढ़िवाद को स्वीकार किया, न पश्चिम के व्यक्तिवाद को। उन्होंने बाह्यजगत् और मानव जीवन की वास्तविकता के आधार पर नये साहित्य-सिद्धांतों की स्थापना की और उनके आधार पर सामन्ती साहित्य का विरोध किया और देशभक्ति और जनतन्त्र की साहित्यिक परम्परा का समर्थन किया। उनका यह कार्य हर देशप्रेमी और जनवादी लेखक तथा पाठक के लिए दिलचस्प होना चाहिए। शुक्लजी पर पुस्तक लिखने का यही कारण है।’’
डॉ. रामविलास शर्मा शुक्लजी को इतना महत्त्व इसलिए देते हैं कि ‘उन्होंने हिन्दी की सैद्धान्तिक आलोचना को ठोस दार्शनिक आधार दिया, रस की अलौकिकता का निषेध किया, जीवन और साहित्य के भावों में बुनियादी अन्तर स्वीकार नहीं किया, भावों को उनके आधार से अलग करके देखा, लोक-हृदय में लीन होने की दशा को रसदशा माना, रीति-ग्रंन्थों और उनकी सीमा में बंधे समीक्षकों का विरोध किया, ‘प्रेम’ की अपेक्षा ‘करुणा’ को अधिक महत्त्व दिया और लोक-रक्षा के विधान में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को पहचाना, साम्राज्यवादी उत्पीड़न का विरोध किया, अंग्रेजी साहित्य की व्यक्तिवादी एवं प्रगतिविरोधी प्रवृत्तियों से हिन्दी लेखकों को सावधान किया, काव्य में करुणा-प्रेरित प्रचण्ड भावों (क्रोध आदि) के विधान में भी सौन्दर्य देखा, परोक्ष सत्ता के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति करने वाले साम्प्रदायिक रहस्यवाद का विरोध किया, वस्तुओं और विचारों की गतिशीलता पर बल देते हुए सौन्दर्य एवं मंगल के गत्यात्मक स्वरूप को सहारा और इतिहास के अध्ययन की एक व्यवस्थित पद्धति कायम की।’
डॉ. रामविलास शर्मा ने आचार्य शुक्ल की तार्किक विवेचन शैली, उनकी भाषा-नीति और उनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं- ‘उनकी शैली तार्किक विवेचन के लिए उपयुक्त होने के साथ आवश्यकतानुसार आवेशपूर्ण और आलंकारिक भी है और उसकी एक विशेषता जीवन का संचित अनुभव प्रकट करने वाली वाक्यावली है। शब्द चयन में उर्दू के प्रचलित शब्दों से उन्हें परहेज नहीं है। उनका व्यक्तित्व एक सहृदय और विनोदी साहित्य-प्रेमी और संसार प्रेमी मनुष्य का है, पुस्तक-सेवी सन्यासी का नहीं। उनकी निर्भीकता, दृढ़ता, गहन अध्यवसाय और आत्मविश्वास के गुण उनके काव्य-सिद्धान्तों और साहित्यलोचन की ही तरह हिन्दी-प्रेमियों के लिए शिक्षाप्रद और प्रेरणादायक है।’’
हिंदी के अमर कथाकार मुंशी प्रेमचंद डॉ.रामविलास शर्मा के प्रिय लेखकों में से एक हैं। रामविलास शर्मा जी ने अपनी पहली आलोचनात्मक पुस्तक प्रेमचंद जी पर लिखी है। प्रेमचंद पर लिखी अपनी एक ओर पुस्तक ‘प्रेमचंद और उनका युग’ के प्रथम संस्करण की भूमिका में डॉ.रामविलास शर्मा ने उन पर लगे आक्षेपों के जवाब मे लिखते है- ‘ब्रजनंदन जी ने कुछ झूठ न लिखा था कि हिंदी-भाषी जनता ने प्रेमचंद जी से पूरा लाभ नहीं उठाया। बल्कि जनता ने तो लाभ उठाया है, हिन्दी-लेखकों ने लाभ नहीं उठाया। लाभ उठाने का प्रमाण यह होना चाहिए कि हमने प्रेमचन्द की स्वस्थ परंपरा का अनुसरण किया हो, उसे आगे बढ़ाया हो। लेकिन कितने लेखकों ने उस परम्परा को पहचाना है, उसे हिंदी-साहित्य की मूल्यवान विरासत समझा है\ हिंदी के महान कथाकारों को चीरहरण से फुरसत न मिली, वह अंतस्तल की निगूढ़ भावनाओं का चित्रण करने में हिंदुस्तान की जनता का दुख-दर्द भूल गए।’
प्रेमचंद की महत्ता पर डॉ.रामविलास शर्मा लिखते हैं- ‘तुलसीदास के बाद हिंदी में यह पहला इतना बड़ा कलाकार पैदा हुआ था जिसकी रचनाएँ अपनी ही भाषा के क्षेत्र में नहीं, सुदूर दक्षिण के गाँवों में भी पहुँच गई थी।’
प्रेमचंद के साहित्य का स्रोत जनता है। इस बात को रामविलास ने रेखांकित किया और हिन्दी के अन्य आलोचकों ने इसी बात को नहीं सीखा। इस बात पर डॉ. रामविलास शर्मा ने टिप्पणी करते हैं- ‘‘प्रेमचंद से जिस चीज़ को हिन्दी के इन दिग्गज आलोचकों और कलाकारों ने नहीं सीखा, वह यह कि जनता कला का स्रोत है और उससे अलग रहकर महान साहित्य की रचना नहीं की जा सकती।’’
प्रेमचंद से पूर्व हिन्दी में लाखों लाख की संख्या में ‘चंद्रकांता जैसे तिलिस्मी, ऐयारी और कौतूहल प्रधान उपन्यासों के पाठक थे। इन पाठकों को एक ऐसे पाठ की ओर उन्मुख कर देना जिसमें जनता के सामाजिक यथार्थ का चित्रण हो, प्रेमचंद द्वारा अत्यंत क्रांतिकारी कार्य सिद्ध हुआ।
डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी इस संदर्भ में लिखते हैं कि- ‘प्रेमचंद की इस महत्त्व पर जहाँ तक मेरी जानकारी है सबसे पहले डॉ. शर्मा का ध्यान गया है।’
वैसे तो प्रेमचंद पर सैकड़ों किताबें लिखी गई हैं। हजारों उक्तियाँ प्रेमंचद के बारे में दी जाती हैं। परन्तु रामविलास शर्मा की तरह जनवादी प्रमाण किसी और ने शायद ही दिए हों। उन्होंने इस संदर्भ में लिखा- ‘‘चन्द्रकान्ता’ और ‘तिलिस्म होशरुबा’ के पढ़नेवाले लाखों थे। प्रेमचन्द ने इन लाखों पाठकों को सेवासदन का पाठक बनाया, यह उनका युगान्तकारी काम था। इन पाठकों की संख्या का अंदाज किताबों की बिक्री और संस्करणों से नहीं लगाया जा सकता। शहर या कस्बे के किसी पुस्तकालय में जाकर प्रेमचंद की किताबों की हालत देखिए। तरकारी काटने वाली स्त्रियों के हाथों से लेकर लाठी को तेल पिलानेवाले दरबानों की उंगलियों तक उनके सफे पलटे जाने से वे किस खस्ता हालत में दिखाई देती है। प्रेमचंद ने ‘चंद्रकान्ता’ के पाठकों को अपनी तरफ ही नहीं खींचा, ‘चंद्रकांता’ में अरुचि भी पैदा की, जन-रूचि के लिए उन्होंने नए मापदंड कायम किए और साहित्य के नए पाठक और पाठिकाएँ भी पैदा किए। यह उनकी जबरदस्त सफलता थी।’
हिंदी के कुछ माननीय आलोचकों ने कहा कि प्रेमचंद में सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण की क्षमता नहीं थी।
एक उदाहरण लीजिए- ‘‘प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में मनोविज्ञान को किंचित् प्रश्रय देने का प्रयास अवश्य किया, पर अव्यक्त में जिस स्तर के मनोविज्ञान को वह प्रश्रय देना चाहते थे, वह यों भी अत्यंत छिछला और केवल ऊपरी सतह को छूनेवाला था, तिस पर वह ऊपरी सतह के मनोविज्ञान को भी ठीक से अपना नहीं पाए।’’
डॉ. रामविलास शर्मा ने इस आक्षेप का तीव्र प्रतिवाद किया। उन्होंने ‘प्रेमाश्रम’ के इस प्रसंग को उद्धृत किया और अपनी टिप्पणी की। प्रसंग कुछ इस प्रकार है- प्रेमाश्रम में एक स्थान पर मनोहर अपने पुत्र बलराज के सिपाही द्वारा पकड़ लिए जाने पर ‘‘बाज की तरह टूटकर बलराज के पास पहुँचा और दोनों कांस्टेबिलों को धक्का देकर बोला- छोड़ दो, नहीं तो अच्छा न होगा। इतना कहते-कहते उसकी ज़बान बदं हो गई और आखों से आँसू निकल पड़े।’’
अब इस प्रसंग पर रामविलास शर्मा टिप्पणी करते हैं- ‘‘कुछ आलोचक कहते हैं कि प्रेमचंद में मनोवैज्ञानिक गहराई नहीं है। मनोविज्ञान का अर्थ विकृत काम-विकार ही न हो तो यह भी बड़ा सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण है। बेटे की दुर्दशा देखकर बाप अपने को रोक नहीं पाता। तैश में आ कर सिपाहियों को धक्का देता है, लेकिन दूसरे ही क्षण अपनी बेबसी समझकर रोने लगता है।’’
प्रेमचंद के समाज का पात्र मनोद्वन्द्व और जटिलता से भी घिरा हुआ था। मध्यवर्ग की कमजोरी उसमें साफ नजर आती है। उनमें दोहरे चरित्र का विकास दिखाई देता है। डॉ. रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद के इस महत्त्वपूर्ण चित्रण को पहचाना और उसे रेखांकित किया। कर्मभूमि के नायक अमरकांत पर डॉ.शर्मा की टिप्पणी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है- ‘‘सर्वतोन्मुखी क्रांति का यह समर्थक अमल में हमेशा समझौता करता है। सकीना के मामले में वह दोहरा विश्वासघात करता है- एक तरफ अपनी स्त्री से, जो माँ बन चुकी है, दूसरी तरफ सकीना से, जो उसकी प्रेमिका है। किसानों के मामले में भी वह दोहरी दग़ा करता है, एक तरप़फ़ आत्मानंद से, जिन्हें फँसाने का निश्चय कर लेता है, दूसरी तरफ किसानों से जिनके सामने वह स्वच्छ देश-भक्त बना रहता है।’’
प्रेमचंद का अंतिम पूर्ण उपन्यास गोदान (1936) है। जिसका नायक होरी एक निम्न मध्यवर्गीय किसान है। डॉ.शर्मा ने इस उपन्यास की मुख्य समस्या ऋण की समस्या बतायी और इसे वे प्रेमचंद के स्वयं के जीवन से जोड़़ कर देखते हैं। हालाँकि प्रेमचंद ने स्वयं इस तथ्य को स्वीकार करते हैं। उन्होंने बंबई से जैनेन्द्र जी को एक पत्र लिखा- ‘‘कर्ज़दार हो गया हूँ । कर्ज़ पटा दूँगा, मगर और कोई लाभ नहीं। उपन्यास (गोदान) के अंतिम पृष्ठ लिखने बाकी हैं। उधर मन ही नहीं जाता। (जी चाहता है) यहाँ से छुट्टी पाकर अपने पुराने अड्डे पर जा बैठूँ। वहाँ धन नहीं है, मगर संतोष अवश्य है। यहाँ तो जान पड़ता है कि जीवन नष्ट कर रहा हूँ।’’
इस तथ्य के सहारे ही डॉ.रामविलास शर्मा ने गोदान में ऋण की समस्या को प्रेमचंद के स्वयं कर्ज़दार होने की बात से जोड़ा और अपनी टिप्पणी की- ‘प्रेमचंद ने जब गोदान लिखा था, तब वह खुद भी कर्ज़ के बोझ से दबे हुए थे। ‘गोदान’ की मूल समस्या ऋण की समस्या है। इस उपन्यास में किसानों के साथ मानों वह आपबीति भी कह रहे थे। किसानों के जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर वह उपन्यास लिख चुके थे- ‘प्रेमाश्रम’ में बेदखली और इज़ाफ़ा लगान पर, ‘कर्मभूमि’ में बढ़ते हुए आर्थिक संकट और किसानों की लगानबंदी की लड़ाई पर-लेकिन कर्ज़ की समस्या पर उन्होंने विस्तार से कोई उपन्यास न लिखा था। ‘गोदान’ लिखकर उन्होंने किसान की उस समस्या पर प्रकाश डाला जो आए दिन उनके जीवन को सबसे ज्यादा स्पर्श करती है।’
यहाँ हम देख सकते हैं कि डॉ. रामविलास उन आलोचकों से एक दम भिन्न है जो रचना को रचनाकार से काट कर देखने के आग्रही है। यहाँ रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद के जीवन के सच को रचना के सच के साथ जोड़ कर देखा है।
डॉ. रामविलास शर्मा ने गोदान के जनवादी पक्षों को उभार कर हमारे सामने रख दिया है। पठान बनकर आए प्रो. मेहता को होरी पटक देता है। इस घटना पर डॉ. शर्मा ने जनवादी तरीके से विचार किया है। यहाँ उनकी मार्क्सवादी दृष्टि साफ निखर के सामने आती है- ‘‘जवाँमर्दी की परीक्षा में सिर्फ़ होरी पास होता है, खेत में कुदाल चलानेवाला किसान और मानवतावाद पर लेक्चर झाड़नेवाले वे सब सज्जन फेल होते हैं।’’ गोदान से प्रेमचंद का जो संदेश वे लक्षित करते हैं, वह रामविलास जी के भी हृदय की बात है। ‘गोदान के बाद अगला कदम यही हो सकता है कि मेहता और होरी- जैसे लोग अपना एका मज़बूत करके रायसाहब और उनके विलायती प्रभुओं के जाल को छिन्न-भिन्न कर दें।’
प्रेमचंद की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता पर रामविलास शर्मा का ध्यान गया है। जिस पर अक्सर आजकल के आलोचकों की दृष्टि नहीं जा रही है। लेकिन डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने रामविलास शर्मा के इस कार्य को पहचाना और लिखा-
‘‘प्रेमचंद की एक और विशेषता की ओर डॉ.शर्मा ने ध्यान दिया है- वह है, हिन्दू-मुसलमान दोनों के जीवन पर समान अधिकार से लिख सकने की शक्ति। हिन्दी और उर्दू, हिन्दी और मुसलमान दोनों धर्मावलम्बियों के बीच ऐसा दूसरा कोई साहित्यकार नहीं हुआ जिसने साम्प्रदायिक एकता स्थापित करने के लिए साहित्य में ऐसे मार्मिक चित्र प्रस्तुत किए हैं।’’
डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने रामविलास शर्मा के बारे में बिल्कुल ठीक लिखा है- ‘डॉ.रामविलास शर्मा ने प्रेमचन्द को कबीर, तुलसी और भारतेन्दु की परम्परा से जोड़ा है। ऐसा करके डॉ. शर्मा ने केवल प्रेमचन्द को ही स्थापित नहीं किया है, प्रगतिवादी आलोचना पद्धति को भी हमारी जातीय परम्पराओं से जोड़ा है। उन्होंने प्रेमचन्द द्वारा चित्रित भारतीय जीवन की व्याख्या करके, उसका परीक्षण-निरीक्षण करके प्रेमचंद का मूल्यांकन किया है और प्रगतिवादी कसौटी को विश्वसनीय बनाया है।’
आधुनिक कवियों में निराला रामविलास शर्मा के सबसे अधिक प्रिय हैं। निराला के व्यक्तित्व से रामविलास जी कि आत्मीयता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अपने काव्य संग्रह रूप तरंग की भूमिका में उन्होंने लिखा- ‘‘यदि मेरे प्रिय कवि पर प्रहार न किए गए होते तो में आलोचना के क्षेत्र में सम्भवतः उतरता ही नहीं।’’
निराला पर रामविलास शर्मा ने एक लेख लिखा था 1931 में। जिसका शीर्षक था- निराला जी की कविता। इस लेख से निरालाजी की कविताओं का सौन्दर्य समझाया गया है। इस लेख में निराला जी की कविताओं से उद्धरण चुन-चुन कर प्रस्तुत दिये गये हैं। क्योंकि उस समय और आज भी निराला की कविता को दुरुह कहा जाता है। रामविलास जी ने लिखा कि ‘निरालाजी की कविता समझने के लिए किसी रहस्यवाद या छायावाद और फिलासफी में पारंगत होने की आवश्यकता नहीं। कविता हृदय की भाषा है। उसे रस लेने के लिए भावों को सभ्य बनाना चाहिए, अपने कविता के स्वाद को सुशिक्षित बनाना चाहिए!’
डॉ. रामविलास शर्मा की निराला सम्बन्धी आलोचना उनके समीक्षक-व्यक्तित्व का चरम उत्कर्ष है। उन्होंने ‘निराला की साहित्य-साधना’ लिख कर निराला के व्यक्तित्व और कृतत्व पर समग्र रूप से विचार किया है। उन्होंने निराला का मूल्यांकन करते हुए उन्हें छायावाद का सबसे बड़ा कवि सिद्ध किया। एक प्रकार से उन्होंने इस ‘साहित्य-साधना’ से अपना भी कीर्ति-स्तम्भ हिन्दी आलोचना में खड़ा किया है। ‘निराला की साहित्य-साधना’ के प्रथम खण्ड में निराला का जीवनचरित है। इसे लिखते समय रामविलास जी का ध्यान निराला के व्यक्तित्व के अध्ययन की ओर रहा है। ‘पंद्रह अध्यायों में जीवन कथा है, अगले तीन अध्यायों में उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण है। एक अध्याय पन्त और निराला के व्यक्तित्वों पर उनके साम्य और वैषम्य पर है। अंतिम अध्याय में तथ्य-संग्रह और जीवनी लिखने की कुछ समस्याओं का विवेचन है।— ‘निराला की साहित्य-साधना’ के दूसरे खण्ड में उनकी कला और विचारधारा का विवेचन किया गया है, तीसरे खण्ड में उनके जीवन और साहित्य से सम्बन्धित अध्ययन-सामग्री तथा उनके पत्र हैं।’
निराला के कवि-व्यक्तित्व की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए रामविलास जी लिखते हैं- ‘निराला की रचना-प्रक्रिया का स्रोत है उनका भावबोध। यह भावबोध उनकी विचारधारा से सम्बद्ध है किन्तु उसका प्रतिबिम्ब नहीं है। निराला का स्वाधीनता- प्रेम उनके साहित्य में अप्रत्याशित नये-नये रूपों में व्यक्त होता है। उनकी आस्था के प्रतीक अनेक हैं, उनका अधिष्ठान एक है। उनकी दार्शनिक मान्यताएँ अनेक अन्तर्विरोधों को पार करती हुई नारी और प्रकृति के मोहक चित्रों के साथ साहित्य में व्यक्त होती है। नये मानवतावाद के प्रतिष्ठापक निराला के साहित्य में मनुष्य वीर, क्रान्तिकारी योद्धा, कवि, निरन्तर संघर्षशील साथ ही अन्तर्द्वन्द्व, ग्लानि और पराजय से पीड़ित साधारण मनुष्य भी है। निराला सौन्दर्य और उल्लास के कवि है, दुःख और मृत्यु के भी।’
डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘निराला’ के सम्पूर्ण रचना कर्म पर गंभीर आलोचना की है। परन्तु यहाँ सभी का सूक्ष्म विवेचन करने का अवसर नहीं है। हम यहाँ निराला की दो महत्त्वपूर्ण लम्बी कविता ‘तुलसीदास’ और राम की शक्ति पूजा पर रामविलास जी द्वारा की गई आलोचना पर विचार करते हैं।
डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘तुलसीदास’ (कविता) की आलोचना ऐतिहासिक दृष्टि से की है। शुरूआत में ही उन्होंने कहा ‘‘मध्यकाल में समाज का जो पतन हुआ और पतन में शूद्रों पर जो अत्याचार हुए, वह इस कथा की पृष्ठभूमि है।’’
इसके बाद वे इस कविता का सीधा सम्बन्ध गोस्वामी तुलसीदास के अर्न्तद्वन्द्व से मानते हैं। उन्हीं के शब्द है- ‘मूल चित्र गोस्वामी तुलसीदास के अन्तर्द्वन्द्व का है। वे अपनी साधना से समाज को मुक्त करना चाहते हैं लेकिन मन की दुर्बल वासना इसमें बाधक होती है। अन्त में गृह त्यागने पर उन्हें नारी का तेजोमय रूप दिखाई देता है और बाधक होने के बदले वह उनके जीवन की महान प्ररेणा बन जाती है।’
निराला ने अपनी कविता में रत्नावली से तुलसीदास को जो मर्म वचन कहवाया है वह यह है-
‘‘धिक! धाये तुम यों अनाहूत,
धो दिया श्रेष्ठ कुल-धर्म धूत,
राम के नहीं, काम के सूत कहलाये!
हो बिके जहाँ तुम बिना दाम,
वह नहीं और कुछ-हाड़-चाम!
कैसी शिक्षा, कैसे विराम पर आये!’’
कविता के इस अंश पर डॉ. रामविलास शर्मा ने ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ी प्रखर टिप्पणी की। उन्होंने लिखा- ‘‘रत्नावली के शब्दों में तुलसीदास को नहीं, वरन् साहित्य और संस्कृति की समस्त रीतिकालीन परम्परा को धिक्कारा गया है। उसके योगिनी रूप में मध्यकालीन नारी का नायिका- भेद वाला रूप जलकर भस्म हो गया है।’’
‘तुलसीदास’ जैसी ही ‘राम की शक्ति-पूजा’ एक लम्बी कविता है। ‘तुलसीदास’ कविता में स्वयं तुलसीदास नायक है। लेकिन ‘राम की शक्ति-पूजा’ के नायक राम तुलसी के नायक राम से भिन्न हैं। वे निराला के राम हैं। ‘निराला’ ने अपने युग के अनुरूप अपने नायक का सृजन किया है। ‘तुलसीदास’ कविता में ‘निराला’ ने मध्यकालीन समाज का चित्रण किया है। वहीं ‘राम की शक्ति-पूजा’ के नायक राम का जीवन निराला के जीवन सत्य से सम्बद्ध है। इस बात पर सबसे पहले ध्यान रामविलास शर्मा का गया। उन्होंने लिखा- ‘‘इस कविता की पृष्ठभूमि पौराणिक है परन्तु उसका सत्य कवि के इसी जीवन का है।’’
‘राम की शक्ति-पूजा’ कविता में एक अंश, जो रामविलास शर्मा के अनुसार इस कविता का सूत्र है-
‘‘धिक् जीवन को जो पता ही आया विरोध,
धिक् साधन, जिसके लिए सदा ही किया शोध!’’
डॉ. रामविलास शर्मा ने इस अंश पर अपनी टिप्पणी की- ‘‘ ‘धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध’, यह पंक्ति पूरी कविता का सूत्र है। कहना न होगा कि यह पंक्ति स्वयं कवि के जीवन पर खूब घटित होती है। राक्षस, वानर, लंका, समुद्र-तट, यह सब एक विशाल सेंटिग मात्र हैं, वास्तविक संघर्ष राम के हृदय में है। वह शक्ति की साधना कर रहे हैं और प्रश्न है कि वह विजयी होंगे या नहीं। ‘तुलसीदास’ में कवि एक हद तक तटस्थ है, ‘राम की शक्ति-पूजा’ पर कवि की अपने व्यक्तित्व की छाप है।’’
इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि रामविलास शर्मा ऐसे आलोचक है जो रचना को रचनाकार से काट कर नहीं देखते। वह रचना को रचनाकार से सम्बद्ध करके देखते हैं। निराला प्रेमचंद, शुक्लजी इत्यादि के मूल्यांकन में उन्होंने आलोचना के इस पक्ष पर ध्यान दिया है।
निराला के बाद रामविलास शर्मा ने मुख्यतः तीन बड़े कवियों ‘मुक्तिबोध’, शमशेर और नागार्जुन का मूल्यांकन किया है। डॉ. रामविलास ने ‘मुक्तिबोध’ के काव्य का मूल्यांकन करते हुए उनके अंतर्विरोध को पहचाना और मुक्तिबोध के काव्य को आत्मसंघर्ष का काव्य कहा है। इस आत्मसंघर्ष की व्याख्या करते हुए डॉ.रामविलास शर्मा लिखते हैं- ‘‘उनके आत्म-संघर्ष के अनेक स्तर हैं। एक स्तर हैं निम्न वर्ग की भूमि को छोड़कर सर्वहारा वर्ग से तादात्मय स्थापित करने का। दूसरा स्तर है मन के दुःस्वप्नों- पाप बोध, मृत्युचिन्तन, असमान्य स्थिति- से निकलकर स्वयं को और संसार को वस्तुगत रूप में देखने का। तीसरा स्तर है अपनी काव्यकला को निरन्तर विकसित करने का। मुक्तिबोध का साहित्य उस व्यक्ति का साहित्य है जो जीवन की अनिवार्य विवशताओं के बीच निरन्तर अपने विवेक के अनुसार व्यक्तित्व के निर्माण में प्रयत्नशील रहता है।’’
शमशेर के सम्बन्ध में डॉ. शर्मा अपना मत प्रकट करते हुए कहते हैं कि ‘शमशेर का काव्य रीतिवादी रूमानी सौर्न्यबोध और मार्क्सवादी विवेक के द्वन्द्व का काव्य है। शमशेर में यह द्वन्द्व शुरू से ही पाया जाता है और वे इस द्वन्द्व को सार्थक संगति नहीं दे पाये।’ ‘मुक्तिबोध’ और ‘शमशेर’ के आत्मसंघर्ष की तुलना करते हुए डॉ.रामविलास शर्मा लिखते हैं- ‘‘मुक्तिबोध रहस्यवाद को लेकर बड़ी उलझन में पड़े थे। शमशेर में ऐसी कोई उलझन नहीं है। ‘मुक्तिबोध’ मनोविश्लेषण शास्त्र से प्रभावित होकर अन्तर्मन की गुफा में ज्ञान के मणि और रत्न ढूँढते थे और फिर इस आत्मप्रवंचना पर झुँझलाते थे। शमशेर सजीले जिस्म के गुणगाने पर ऐसा रीझते हैं कि अँधेरे कुएँ या बाबड़ी में उतरने की उन्हें फुर्सत नहीं मिलती। किन्तु शमशेर उतने आत्ममुग्ध नहीं जितने ‘मुक्तिबोध’ थे। मुक्तिबोध अस्तित्ववाद की ओर खिंचे और अपने-पराये अनेक पापों का मैल मन से धोते रहे। शमशेर नयी कविता के उन तमाम लेखकों से अलग है जो अस्तित्ववाद से प्रभावित हैं। उनका आत्म-संघर्ष है उत्तर छायावादी काव्यबोध को लेकर।’’
डॉ. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘नयी कविता और अस्तित्वाद’ में नयी कविता के संदर्भ में नागार्जुन की काव्य-कला का मूल्यांकन किया। वे यह स्वीकार करते हैं कि ‘नयी कविता के संदर्भों में नागार्जुन की चर्चा नहीं के बराबर है।’
लेकिन रामविलास शर्मा का अटल विश्वास है कि भविष्य में ‘‘जब समाजवादी दलों का बिखराव दूर होगा, जब हिन्दी प्रदेश की श्रमिक जनता एकजुट होकर नये समाज के निमार्ण की ओर बढ़ेगी, जब नयी कविता का अस्तित्वादी सैलाब सूख चुका होगाा, जब मध्यवर्ग और किसानों और मजदूरों में भी जन्म लेने वाले कवि दृढ़ता से अपना सम्बन्ध जन आंदोलन से कायम करेंगे तब उनके सामने लोकप्रिय साहित्य और कलात्मक सौन्दर्य के सन्तुलन की समस्या फिर से पेश होगी और तब साहित्य और राजनीति में उनका सही मार्ग दर्शन करने वाले, अपनी रचनाओं के प्रत्यक्ष उदाहरण से उन्हें शिक्षित करने वाले, उनके प्रेरक और गुरू होंगे कवि नागार्जुन।’’
डॉ. रामविलास शर्मा नागार्जुन के काव्य को इतना उपयोगी और महत्त्वपूर्ण इसलिए मानते हैं कि ‘उसमें दृढ़ क्रान्ति-भावना विद्यमान है। वह लोक-संस्कृति के निकट है उस में प्रखर राजनीतिक चेतना और गहरा व्यंग्य है। उसमें यथार्थ जीवन के वैविध्यपूर्ण मार्मिक चित्र है। उसमें रहस्यवाद और यथार्थवाद को लेकर किसी प्रकार का द्वन्द्व नहीं है— उसमें कथ्य के अनुकूल भाषा की सहज गति और लय को आधार बनाकर विविध प्रकार के प्रयोग किये गये हैं। डॉ.शर्मा को यह संतोष है कि आलोचकों ने चाहे नागार्जुन के विषय में कम लिखा हो, किन्तु कवियों ने उन्हें काव्य का विषय बना दिया है।’
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि रामविलास उन्हीं साहित्यकारों को महत्त्व देते हैं जिनके साहित्य में जनता की आवाज है। जिन्होंने अपने साहित्य में वस्तुवादी और समाज के यथार्थ पहलुओं का चित्रण किया है। आत्ममुग्ध और रहस्यवादी प्रवृत्तियों का रामविलास शर्मा ने विरोध किया। इसी कारण ‘अज्ञेय’ मुक्तिबोध शमशेर और अन्य रहस्यवादी कवियों पर उन्होंने अपनी ध्वंसात्मक आलोचना लिखी।
साहित्यिक आलोचना के अलावा रामविलास शर्मा ने भाषा चिंतन, संस्कृति चिंतन भी किया है जो उनके साहित्यिक अवदान का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। पर यहाँ उन सब पर चर्चा करने का अवसर नहीं मिल पा रहा है।
*हिंदी के प्रहरी (रामविलास शर्मा के लिए इस विशेषण का प्रयोग डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी और अरुण प्रकाश द्वारा संपादित पुस्तक ‘हिन्दी के प्रहरी’ के शीर्षक में किया गया है। यह शब्द वहीं से उद्धृत है।)