(१) सखि आओ तुम
अलि आओ तुम,
काली आंखों में ढेर सारा
काजल डालकर,
जैसे हर दिन के बाद
चली आती है रात
आली आओ तुम,
सांवले माथे पर सजाकर
लाल कुमकुम
जैसे पौ फटे दमकता है
धरती के माथे पर सूरज
अलि आओ तुम,
गुलाबी होठों में लपेटे
शहद डूबे पराग-मकरन्द
जैसे खालिस दूध में घुलती चाय,
ताप संवारता है ट्यूलिप का फूल
आली आओ तुम,
घनी केश-वेणी मुक्ताजाल में
बांध सत्ताइस नक्षत्रों को
यौवन दर्प को बना मांगटीका
जैसे आती है ताराखचित यामा
अलि आओ तुम,
मंदारपुष्पों की पहन करधनी
मृगनाभि की अंगराग ओढ़
जैसे, सांवरी अमराइयों में
बहती है पुरवइया
आली आओ तुम,
पहन समर्पण के कण्ठहार
विश्वास का चरणराग
आकर्षण की नासामुक्ता
जैसे आता है छातियों में दूध
अलि आओ तुम,
जैसे समय पर आती है मृत्यु,
कभी असमय भी
जैसे आता है ईंख के पोरों में रस
जैसे कौंधती है बिजुरी पयोधर में
आली आओ तुम,
शोक की बदलियों को बिसराकर
सतरंगी सपनों को पाले,
जैसे हर बरसात के बाद
कहीं निकलता है मधवा का चाप
(२) चिर जीवो प्रेम
प्रेम अधूरा है प्रेम प्रतिज्ञाओं सा
प्रेम अल्पायु है प्रेमानंद जैसा,
पलक मूंदने खोलने भर के अंतराल में
हजारों स्पर्शगंगाएं जन्मती मरती हैं
प्रेम चिरंजीवी है प्रेमाश्रुओं की तरह
यह आश्वस्ति है जो देखी जाती है
सो रहे बच्चों के चेहरों पर
जिनकी आंखें अभी मांओं ने चूमी हैं
प्रेम प्रश्नवाची है प्रेमकथाओं की तरह
जहाँ लाख सौंदर्य के होते भी
एक अज्ञात भय छुपा है जैसे
नवजात के माथे पर काजल का डिठौना
प्रेम निष्कर्ष की तरह गूंजता है
प्रेम उत्तर की तरह बरसता है
जब अभिलाषाएं खिलती हैं
जब माथे चूमे जाते हैं
प्रेम अमर क्षुधा है
अधरों का अनिर्णीत स्वाद
नेत्रों के चिर प्यासे नखत
स्मरण रहे, भूखे प्यासे पाप भी कर सकते हैं
प्रेम चैतन्य है
हर जड़ की परिधि के पार
सांसों की परिधि के पार
आयु की परिधि के पार
प्रेम समाधान है हर संशय का
जहां आत्माएं देह खोजती हैं
ताकि आत्माओं को प्रेम कर सकें
यह शरीर का अशरीरी प्रयास है
(३) प्रेम प्रवर्तक
प्रेमी उतना ही प्रेमी था
बिलकुल जितने इसाई थे जीसस
यथार्थतः जितने मुसलमान थे मुहम्मद
जितने जैन थे महावीर
जितने बौद्ध थे सिद्धार्थ
जितने पारसी थे जरथुस्त्र
प्रेमी प्रेमी कम प्रेम प्रवर्तक अधिक था।
प्रेमिका उतनी ही प्रेमिका थी
जितनी ऊष्मा थी विरह से तपते हृदय में
जितना मद था मद से भारी पलकों पर
जितनी शीतलता थी मलयानिल अलकों पर
जितना प्रणय था प्रणयगंगा की आंखों में
जितनी करूणा थी करुणामयी के मन में
प्रेमिका प्रेयस कम प्रेम की अनुभूति अधिक थी।
और प्रेम! वह आकर्षण से न उपजा था
क्षणभंगुर न थी मर्यादा उसकी
कि उसमें अशुभ के बीज छुपे हों सुषुप्त
गहन साधन का परिणाम थी यह केलि
संयम से पल्लवित थे शुभ भविष्य के अंकुर
इस प्रेम में पुंसवाद न था परंपरा न थी
न था नियम न किसी वर्चस्व की नियति।
और इन प्रेम कविताओं का कवि!
काव्य का हृदय नोचता कविता का व्यापारी न था
उसके गीतों में स्त्री थी स्त्री की इच्छाएं थीं
पर न इच्छा माया थी न स्त्री वायवीय
पुरुष था पूरी धज से, पुरूष की स्वतन्त्रता थी
पर न पुरूष, न ही उसके आग्रह अधिनायकवादी थे
कवि न ही मोहित था न ही प्रेमकहानी का आखेटक
(४) प्रेमियों का रात्रिसूक्त
केवल दिन का प्रकाश ही
प्रकाशित नहीं करता
रात भी प्रकाशित करती है
कभी जाग कर देखना
नौ या दस रातें लगातार
चैत्र की अमा से करना आरंभ
दिन साक्षी है कर्म का
रात सींचती है कर्मफल को
दिन मर्त्य है, रात अमरा!
ये चैत्र की वासंती रातें
आशाओं सी अमर नहीं क्या
जैसे अपने अपने नीड़ में
सुख पाते हैं अण्डज, स्वेदज,
उद्भिज और पिण्डज
मैं भी पाऊं प्रसाद रहस्यमयी
उस देवी का जो आकाश की
एकमात्र किशोरी पुत्री है
ज्यों ज्यों मैं इन रातों के
प्रेम में पड़ता जाता हूँ
मुझसे विलग होते जाते हैं
वासना वृकी और पाप वृक्क
भासित होता, प्रकाशित होता हूँ
अनुराग की ज्योत्सना से
बाहर चैत्र की रोगी हवा
और भीतर प्रेम की दीप्ति से
झर झर झरता तन मन
मन भर जागूँगा कि कहीं
मन भर सो भर लेना ही
मोक्षकारक हो सकता है
चैत्र का अकास व्याप्त है
मधुआ के अबूझे नशे से
कि मधुमालती खलती है
राग मिश्र वसंत में भीनी
सुदूर प्राची की स्वरलहरियां
चढ़त चइत चित लागे ना रामा
ऊषा! जैसे मुक्त कर देती हो
ऋणी को अकूत धन से
बांझन को सपूत जन से
वैसे ही बन जाना
कामदुधा नंदिनी गौ
मेरे लिए मेरे निमित्त।
(५) प्रेम यज्ञ
नजूमियों ने कहा था जोतिखियों ने उचारा
मेरे मस्तक की रेखाएं साम्य रखती हैं
द्रोणपुत्र अश्वत्थामा की रेखाओं से
दैन्यता, पीड़ा, व्रण को अभिशप्त
‘उसने’ मेरे माथे को चूमा
मेट दिया काल का रचा दुर्भाग्य।
नागरी मुग्धा युवतियों ने कहा था
मेरी अनाकर्षक आंखें हैं अनिद्रा की गवाही
वैष्णवी अभियोग के अनुपयुक्त
निम्बफल सी साधारण तिक्त
‘उसने’ चूम लीं मेरी आंखें
अब यहां खिलते हैं पलाश पाटल कंवल।
सूखे अधर थे प्यासे, अतृप्ति के स्मारक
हर रीते चषक को ताकते जैसे
निष्फल उपासना के बाद
अनुष्ठान वेदी को निहारता पुरोहित
‘उसने’ चूमे कामदीप्त होंठ
भर उठा प्रेम के कृपण देवता का कोष।
मनमंदिर में स्थापित था मलिन पापी कोई
कृत्तिका से भरणी तक
चंद्र की सभी पंद्रह गलियों में फिरता
और पंक और दूषण बटोरता जाता
‘उसने’ मन से चूमा मन
बुहार दिया हर कुसंग का रंग।
दिन में केवल पेट के यथार्थ का प्रकाश
चंद्र-विधौत रात्रियों में देह का प्रतिसत्य
स्वप्न क्या थे सांप भुजंग थे कारे कारे
स्वप्नभंग क्या था आत्महत्या थी
उस हिरण्यगर्भ आत्मा ने चूम
बना दिया इस अनात्मा को भी हिरण्यगर्भ।
जिह्वा स्पंदनहीन थी निष्प्राण
केवल कामनाएं वांछालताएं सघन
गोपन रहस्य काव्य को कोई साधन नहीं
स्पर्श से अलग कि वैखरी तक पहुंचे
‘उसने’ जिह्वा को चूमा जिह्वा से
उस दिन वहां सरस्वती का वास था।
(६) प्रेम की नियति
अपमान और मृत्यु के चक्रवातों के
आखिरी छोर पर
नींद और नींद के उस पार,
प्रलय-राग के सप्तम आरोह के शीर्ष पर,
जब मुक्ति के बड़वानल प्रतीक्षा कर रहे होंगे।
निहारिका के सतत प्रवाह के अनुकूल,
जब इस काया की ऊर्जा और द्रव्य
अन्तिम रूपान्तरण में व्यस्त होंगे।
मेरे मस्तक के चूल्हे का एक ‘अइला’
कर रहा होगा सिंहावलोकन,
ब्रह्मरन्ध्र और सहस्त्रार के
ब्रह्मबीजों से खिलते ब्रह्मकमलों का।
ऊर्ध्वगामी आकाश की विशालता
और जगत की निस्सारता का भी।
ठीक उसी क्षण,
उस बुझते हुए चूल्हे का दूसरा ‘अइला’,
तुम्हारे अंबकों की
मन्दाकिनी और अलकनन्दा की स्मृतियों को बांधने के लिए प्रयत्नशील होगा,
जिनमें चमकते हैं
नीलकण्ठ कैलाश।
जिनमें अनगिनत बार देखे हैं
निर्वाण सदृश ब्रह्मकमल,
जिन नयनों में बसते हैं किल्लोल करते
मानसर के हंस,
जिन नेत्रों में बसती है विराट ब्रह्मांड वेदना।