(1.) शिकारी शहर
शहर शिकारी हो गया है
मारता है झपट्टा
और लील जाता है
गांव गीरान के लड़के
कि गांव के गांव
वीरान पड़ते जा रहे
बचे हैं बस
बूढ़े निस्सहाय असमर्थ
खेत खलिहान से दुआर दलान तक
पसरी पड़ी है चुप्पी!
शिकारी शहर ने कर दिया है रुख
अब खुद ही गांव की ओर
नये शिकार की तलाश में
भूख बड़ी है शहर की
लोलुपता भी बहुत
पसारता जाता है पांव
और गड़पता जाता है धनहर खेत
फिर उगने लगती है बहुमंजिली इमारतें
लहराते खेतों पर कुछ ही दिनों में!
बचपन में सुना करता था
दादी नानाी से किस्से बहुत
उनमें शहर की बातें
हमेशा भयावह ही होतीं
बताती थी दादी- बचवा
शहर बहुते बड़का होता है
और जो भी जाता है शहर
वो कभी लौट कर
नहीं आ पाता है वहां से
तुम्हारे चाचा भी गए
तो कहां आए!
– ये कह-
दादी लगा जाती थी चुप्पी
और तब अबोध मैं निरीह सा
निहारा करता था अंधेरे में भी
उनकी छलछलायी आंखें!
आज दादी नहीं हैं
पर याद करता हूं अक्सर
दादी की कही बातें
टटोलता हूं अपने हाथ पांव
पंद्रह बरस हो ही गए
मुझे भी शहर आए
सुंघता हूं अपनी ही देह
कि कहीं बची है गांव की गंध
या कि हो गया हूं
मैं भी शहर का शिकार
पचा बसा लिया है
शहर ने मुझे अपने भीतर
‘फॉग’की स्मेल में
मिट्टी की महक
मद्धिम तो नहीं पड़ गई!
(2.) अकाल में उत्सव!
एक समय की बात है…
मचा था हाहाकार, जबकि हर तरफ
सब थे बेहाल- सब थे त्रस्त!
मगर राजा मग्न था!!
जारी था उत्सव राज महल में
राजा के नित नए शौक की पूर्ति में
लगी पड़ी, पूरे अमले-जमले की फौ़ज!
अकाल से भिज्ञ मगर अनभिज्ञ बने राजा तक
पहुँचती वही खबरें, जो होतीं सुख-वैभव की!
राजा वही देखता, जो उसके पंच-परामर्शी दिखलाते
सत्य छिपाया जा रहा था लगातार, राज्यादेश से
चूँकि सत्य से होती थी राजा को सिहरन!
राज दरबार में छिड़ते थे महज कल्पना के किस्से
या कि फिर पौराणिक-आख्यान-वेद-पुराण!
राज-काज, विधि-व्यवस्था की हर बात
हमेशा ही दब जाती थी दुर्ग की दरकी दीवारों में!
और राजा का स्व-प्रताप,बन कर आत्म-प्रलाप
गूंजता था राज सभा में,हर रोज प्रमादी ठहाकों संग!
सिसकते सम्राज्य के प्राचीर और बाह्य प्रासाद
हो रहे थे जीर्ण-शीर्ण किन्तु राजमहल दीप्तिमान!
जनता दुखी थी कर्मी पीड़ित थे श्रमिक शोकग्रस्त
विद्वतजन हो व्याकुल सोचते कोई उम्मीद-किरण!
अकाल पसरा पड़ा था जबकि सम्राज्य भर में
जन-पीड़ा उठती हाय बनकर औ दब जाती
उस प्रमादी राजा के कुटिल अट्टहासों तले!
और राजकोष रिक्त हो रहा राजा की रंगीनियों में
कि भिज्ञ राजा, होकर अनभिज्ञ सब से विलग
अकाल में उत्सव मना रहा!!! उत्सव मना रहा!!!
(3.) आदिम इच्छा
मैं जब भी देखता हूं अमलतास
या कि गुलमोहर के लाल फूलों को
पेड़ तले फूलों से पटी धरती को
बड़ी जोर की इच्छा हो आती है
हरबार और बार-बार!
कि चलूं ,बस संग चला चलूं
फूलों पर तुम्हारा हाथ थामे
बिखरी चांदनी में किसी देर रात !
जनश्रुति है यह
कि हर मनुष्य के मन में
कुछ आदिम इच्छाएं
दबी पड़ी होती हैं
बहुत गहरे अंतस में
धरती में दबे बीज सी!
और उभरतीं हैं रह रह!!
कि शायद !
ये मेरी कोई आदिम इच्छा ही है !!
(4.) पहचान
हर रात मैं
निहारता हूं चांद
और चांद…
रूप बदल लेता है
मगर
बदल कर भी
वह चांद ही रहता हैं..
मगर हमारा बदलना
हमारी पहचान तक
बदल देता है..!
(5.) एक पढ़ा हुआ खत
यह जो खत मेरे सामने खुला पड़ा है
जिसे मैं पढ़ता हूं बार बार !
जबकि पढ़ा गया होगा कई बार
मुझसे पहले भी,लिखे जाते वक्त
बुदबुदाएं होंगे होंठ निश्चित ही !
एक- एक हर्फ जे़हन से चलकर
फिर आ उतरे होंगे कागज पर! !
हालांकि,
यह एक पढ़ा हुआ खत है
मगर फिर भी हर बार
नया सा अर्थ खुलता है तह भीतर!
मैं उतरता चला जाता हूं खत में
सघन संवेदना के स्वाद में डूबा
और अपने आप को पाता हूं
खत के भीतर !
दरअसल,
यह खत मेरी मां ने लिखा था
मुझे पहली दफा बरसों पहले
जब निकला था मैं
घर से बाहर- घर से दूर !
अब …जबकि हो जाती है बात
दिन-रात जब चाहो, आसानी से
लेकिन खत सा असरदार संवाद
कभी न हो सका फोन पर!
सो…अब भी
मुझे लगता है भला पढ़ना
एक पढ़ा हुआ खत
हां…मैं पढ़ता हूं – एक पढ़ा हुआ खत! !
(6.) जल-संकट
खबर तो यह भी है/ कि लगतातार
पिघल रहे ग्लेशियर/ तेजी से बढ़ रहा
समुद्र का जल स्तर!
जबकि ठीक उसी समय
खबर यह भी है/ कि लगातार
घट रहा जमीन का जल स्तर
सूख गए पोखर-तालाब
और नदी सिकुड़ गई है!
चापाकलों से पानी रिसना भी
बंद हो गया है कई जगह
कुएं पेंदी पकड़ लिए है
‘लातूर’ से ‘लालगंज’तक
गायब हो रहा जल!
मगर ठीक उसी समय एकदम
इन खबरों से बेखबर-एक युवा
धो रहा अपनी कार
जल बह रहा धारासार!
उसे चाहिए किसी भी कीमत पर
चमचमाती कार
स्विमिंग पूल का वाटर लेबल भी
है एकदम ठीक ठाक!
ठीक उसी समय एकदम
आईपीएल अपने उफान पर है
नमी से भरी मनमाफिक पिच पर
मिनिरल वाटर से धोये जा रहे फेस!
ऐसे समय में जानना चाहता हूं मैं
जल के उस अक्षय स्रोत को
जिसे पा खबरों के दौर में भी
बेखबर बने हैं कुछ मुट्ठी भर
गिने-चुने लोग!
अगर वाकई है कहीं / जल का कोई
ऐसा अक्षय भंडार / तो बनता है हक
पहले उनका / जिसने किया है
अबतक / अपने हिस्से से भी कम
जल इस्तेमाल!
जबकि त्रासदी यह है कि
जूझ रहा वही तबका
आज जल संकट से!
कितनी बेईमानी हो रही
दुनिया में…!
कि जिसने की है हिफाजत पीढ़ियों से
सबसे पहले वही/ मारे जा रहे आज!
मगर तय है इतना
कि मिट गए जो अगर
‘लातूर’ और ‘लालगंज’ के लोग
तो बचोगे तुम भी नहीं!
हां! यकीनन बचोगे तुम भी नहीं
देर-सबेर!!!