एक जादुई होंठों वाला लड़का और एक बदसूरत होंठों वाली लड़की किसी बाग में आम के पेड़ के नीचे बैठे हुए थे। उनके बीच अनकही ख़ामोशी खिंची हुई थी। साँझ की दस्तक देती सूरज की लाली जैसा पैरहन लड़की ने ओढ़ रखा था। उन दो ख़ामोश लोगों के बीच के दृष्टि तन्मय को अपने घरौंदे के लौटते पक्षी तोड़ रहे थे। तभी गूँगी बनी गुड़िया बोल पड़ी—
“मेरे होंठ ख़ूबसूरत नहीं हैं न!”
“किसने कहा?”
“मैं कह रही हूँ।”
“हाँ! सही बात है।”
“अच्छा!” मासूम से फूल की तरह मुँह फुलाकर।
“पूछोगी नहीं क्यूँ।”
“क्यूँ?” बदसूरत होंठ गोल बनाकर।
“क्योंकि अभी तक इन्हें मेरे होंठों ने छुआ नहीं है।”
पूरा बाग तत्क्षण ख़ामोशी की चद्दर से ढक जाता है। कुल-कुल करता खग कुल शान्त होकर अपनी तेज़ आँखें उन दोनों पर टिका देता है।
वे देख रहे थे कि लड़की किसी कैनवॉस सी अचल खड़ी थी। लड़का अपने होंठों की कूची से उसके होंठों में रंग भर रहा था। अपनी कारीगरी से वो लड़की के होंठों पर एक-एक सिलवट सजा रहा था।
दो पल बाद पक्षियों ने देखा कि…
लड़की के होंठ सुर्ख लाल रंगे हुए थे और उनपर चाँदनी बिछी हुई थी। लड़कें के होंठों का गुलाबीपन उतर चुका था और लड़की के होंठ खिल उठे थे।
गौरैय्या ने अपने नन्हें बच्चों को बताया था कि पशु-पक्षी और आदमियों की देहों पर उभरी सिलवटों और उसके रंगों की कला केवल ईश्वर के पास है। पर आज उसने नए कलाकार के दिव्य सृजन को देखा। बदसूरत अधरों पर चाँदनी खिलती देखी। वह देर तक चुपचाप बैठी रही बिना किसी हलचल के, जैसे दो घड़ी पहले जादुई होंठों वाला लड़का और बदसूरत होंठों वाली लड़की ख़ामोश बैठे थे, इस अद्भुत सृजन के लिए।