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तितली जब उड़ी
सूने हथेली पे
रेगिस्तान ने
विस्तार लिया।
वीरानों ने
पाओ पसारे।
अंधड़ों ने
रेखाओं को
मनचाहा मोड़ दिया।
संचित स्खलित हो
लावा सा बह गया।
उड़ते वक़्त तितली के
पंख के किंचित रंग
तर्जनी के कोर को
छू गए थे;
‘शुभ’ संग
अब भी
ठहरे हैं।
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मरीचिका
जो समझा
वो था नहीं
जो चाहा
वो पाया नहीं
कि वो रहा नहीं
कि वो हुआ नहीं।
जो है
वो चाहिए नहीं
कि वो जरूरी नहीं
कि वो…
शायद चाहा हो कभी
कि अब उसकी
जरूरत रही नहीं।
वर्तमान की चाहत
शायद जरूरी भी
क्या पूर्ण होगी कभी?
पूर्ण हुई है कभी
पूर्ण होती है
कभी?
प्रत्युत्तर
विषाक्त
रक्ताभ…
जो मिला
जतन उसकी
की कभी!
रहती नहीं।
होती नहीं।
होती है
शिकायत।
मरीचिका।
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अब मुझे कबूतरों के
गुटरगूँ सुनाई नहीं पड़ते।
चिड़ियों की चहचहाहट
बिल्कुल ही नहीं।
हाँ, आप कह ही सकते हैं
जीवन में हमने
शहर-ओ-शोरशराबे को
सम्मान दिया है।
अब मुझे
घर के झरोखों—-
मचानों पर
तिनकों से सजे घोंसले
नहीं दिखते।
फ्लैट का हर कोना
पूर्व निर्धारित होता है
अतिरेक का कोई
मोल व स्थान नहीं।
पक्षियों को पालना
शुभ समझा जाता
था कभी…
अपनी दो जून तो जुटाती नहीं
उनके दाना-पानी की सुध कौन ले!
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मैं एक मात्र
इंसान हूँ।
बाकी सब
(सब मतलब सब)
देवी और देवता।
मैं पुष्ट और
समर्थ होने ही
आया हूँ यहां।
अतः मांगना मेरा
नैसर्गिक जरूरत
और अधिकार है।
संकोच का आना
समझो, मुझे
दम्भ ने घेरा है।
साथ ही मेरी
मृत्यु समीप है।