■ तुम तोड़ दो
तुम तोड़ दो
प्रेम में अभिभूत झूमते वृक्ष की सब टहनियां
मैं भी रोक देती हूँ
प्रेमिल आकुलता की अधीर नदी को
पत्रहीन वृक्ष के होते नहीं कुछ अर्थ विशेष
और खो देती हैं अस्तित्व अपने
ठहरी हुई नदियां।
अब मत ढलकाना तुम
मेरी मन मरुस्थली पर
तरल प्रेम की एक भी बूंद
मैं भी स्वीकारूंगी नहीं अनंत तक
स्वाति रहित बादल का एक कतरा भी
बिना सहेजे मर ही जाते हैं
मन मराल के सब अंश
अंतहीन प्यास भी देती नहीं जीवन
अब मत रोपना तुम अपने मन की नमी पर
किसी याद का कोई एक भी पौधा
मैं भी आंसुओं से कभी
सींचूँगी नहीं किसी प्रेमी पातधारी को
नोच दो अभी मन पंखी की सब नरम पंखुड़ियाँ
कर दो शून्य धरती को नेह की भी हर नमी से
पंखों के बिना कोई उड़ान होती नहीं संभव
नमी के बिना भी कब अंखुआया कोई अंकुर
हाँ मिटा दो अभी साझे प्रेम का हर बीज धरती से
ताकि फिर कभी कोई
एक फूल भी मुस्करा ना सके उस पर
क्योंकि, प्रेम रोक देगा न तुम्हारी सब राहें
तोड़ देगा उस गंतव्य तक पहुँचने वाली
सतर पगडंडियों की रीढ़
जिन पर चलने की वर्जना ही है यूं भी
जीवन लय में गुनगुनाते आदमी को
हाथ में लेकर मारक मशीनें
बने रहो न निर्भाव तुम
बाध्य कर दो मुझे भी
जला देने पर होलियाँ रोमिल सम्वेदनाओं की
याद रखना पर,
विध्वंसकों से बनते नहीं समाज
संवेदन शून्य शरीरों ने कभी
जन्में कहाँ इंसान
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■ मैं मजदूर की बेटी
मैं मजदूर की बेटी
मैं किस्मत कितनी की हेठी
काया को बोलो तो मेरी
उबटन कहाँ मुअस्सर
बाल सखा हैं गारे गोबर
सखी अंतरंग अब तक भी
चूल्हे की रख सलेटी
मैं मजदूर की बेटी
कब मैंने सावन देखा
मन का मयूर कब नाचा
यौवन की तितली भी जाकर
अँखियों माँझ बुझी थी
मैं मजदूर की बेटी
क ख ग घ मैं लगी जानने
नया काल है, नई उमर है
पंख लगाकर आशाओं के अब
उड़ चली गगन अकेली
मैं मजदूर की बेटी