21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में यह कहना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि दुनिया बदल रही है अथवा बदल गई है। इसके पीछे कारण सीधा है कि हम पोस्ट ट्रुथ की दुनिया में जी रहे हैं या जीने के आदी होते जा रहे हैं। इस प्रकार वर्चुअल होती दुनिया में जहाँ पर बहुत ही अलग ओज और तात्कालिक त्वरा में सब घटनाएँ घट रही हैं वहीं पर इतिहास के आईने में ऐसी तस्वीर शब्दों के माध्यम से एक क़लमकार दर्ज करता है जो आपको घटनाओं के देश, काल व परिस्थिति को समझने में सहायक सिद्ध हो सकता है। उस लोकप्रिय और मस्तमौला क़लमकार का नाम है अरुणाभ सौरभ,जो फ़िलहाल भोपाल में रहकर अपनी ऊर्जावान क़लम से पूरे भारत के इतिहास, भूगोल, राजनीति, समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र, मनोविज्ञान व पर्यावरण जैसे ज़रूरी विषयों को शब्दश: कागज़ी पन्नों पर उकेरकर, एक नई काव्यभाषा सम्पूर्ण साहित्य जगत को दे रहे हैं। वह भी उन शब्दों से जो रमणीयार्थ हैं, ऐसी विधा में जो शब्दार्थों सहित है। कविता में बात करना अथवा बातचीत में कविता करना युवा कवि अरुणाभ का सहज, सरल स्वभाव है। कविता इनके व्यक्तित्व की प्रकृति में इस तरह शामिल हो गई है कि बातचीत के लहज़े में इनका अंदाज़ काव्यमय-सा लगता है। जैसे जिस बातचीत के लहज़े में कभी ग़ालिब ने शायरी की थी, गोकि “हर एक बात पर कहते हो तुम कि तू क्या है?/अब तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है?।। शायद यही कारण है कि अरुणाभ ने अपनी इस अनोखी संवाद शैली से वर्तमान की न सिर्फ़ एक पीढ़ी को कविता करने का सलीका दिया है बल्कि एक बड़ी युवा आबादी को अपनी कविताओं से मुतासिर भी किया है। साथ ही साथ हिंदी कुनबे के बड़े बुजुर्गों को एक संतोष भी देते रहे हैं कि कविता का भविष्य सही हाथों में हैं।
बहरहाल, पिछले महीने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित अरुणाभ सौरभ के नए हिंदी काव्य-संग्रह ‘किसी और बहाने से’ की चर्चा हिंदी पाठकों में ख़ूब हो रही है। ताज़्जुब है बग़ैर किसी लोकार्पण के और विमोचन के। इंसान की कार्यविधियों में तात्कालिक महामारी कोरोना का हस्तक्षेप कितना है, इससे हम सभी अवगत ही हैं। ये दूसरी बात है। यहां आपको ध्यातव्य हो कि इस संग्रह में छत्तीस कविताएँ संकलित है और यह संग्रह, इस वर्ष साहित्य अकादेमी पुरस्कृत हिंदी कवयित्री अनामिकाजी को समर्पित है। इस प्रकार अनामिकाजी की कवि व कविता को लेकर एक संक्षिप्त टिप्पणी भी छपी है क़िताब के कवर फ्लैप पर। वास्तव में यह टिप्पणी इस काव्य संग्रह की कविताओं पर एक टॉर्च मारती हुई लगती है।
आप ध्यान से देखें तो इस कविता-संग्रह की पहली ही कविता ‘राग यमन’ की कुछ पंक्तियाँ हैं कि “रात के पेट में/उतर चुकी चाँदनी/…आलाप में सनन-सनन/दूर कहीं अनजान झोपड़ी से/कनखी मारता चाँद/रात के अंधेरे से लड़कर रोटियाँ सेंकती/गाँव की सबसे बूढ़ी अम्मा/अंधेरे से लड़ने का दावा करता कवि। जो यह बताती हैं कि इस देश में आज भी कितना अंधेरा है। साथ ही साथ आपको फिर ये जानकर कोई ताज़्जुब नहीं होगा कि संग्रह की अंतिम कविता ‘किसी और बहाने से देश’ क्यों है? आज राष्ट्रवाद के नाम पर भारत-माता की जयकार लगाने वाले बहुतायात में हैं। ऐसे में ‘कौन है भारत माता’ अग़र किसी जन सामान्य पाठक को ये जानना हो तो संग्रह में छपी छठी कविता ‘धरती माता-भारत माता’ पढ़ लेनी चाहिए। पाठक संक्षिप्त में अच्छी समझ बना सकता है। और अग़र बहुत विस्तृत और विस्तार से जानना हो तो प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की किताब ‘कौन है भारत माता’ की ख़ोज करनी चाहिए एवं पढ़नी चाहिए।
आज भूमंडलीकरण से पहले एक ऐसे दौर अथवा युग ने भारतीय जन-चेतना को प्रभावित किया था जो औद्योगिक क्रांति के दौर में ज्ञानोदय का प्रादुर्भाव पश्चिमी समाजों में बहस के मापक परिवर्तित करता है और शुरू होती है आधुनिकता की यात्रा के साथ ही दो-दो विश्वयुद्धों की त्रासदी, मानवतावाद, उदारता, उपनिवेशवाद, नवउपनिवेशवाद, संरचनावाद, उत्तरसंरचनावाद व तार्किकता की यात्रा। लेकिन कुछ सवाल फिर भी सशंकित करते हैं कि दक्षिणी एशिया में फिर लाखों अल्पसंख्यकों की ज़िन्दगी तबाह क्यों? यह बहुदेववाद के प्रति विद्वेष की परिणति है जातिवादी या नस्लवादी उन्माद है या कुछ और? पूँजीवादी युग में संपन्नता सिर्फ चंद लोगों की क्यों? मानव धर्म, कला, संस्कृति का ‘माल’ बन जाना क्यों? दो तिहाई दुनिया में बेरोजगारी क्यों? ख़ैर, ये तब की बात थी, ऐसा भी नहीं है क्योंकि आज भी इस प्रकार के बहुतेरे सवाल, हिंदी कविता में अपने ज़वाब ढूँढ रहे हैं। समय को भी अपने आपको बदलने में शताब्दियों का सहारा चाहिए और हिंदी साहित्येतिहास गवाह है साक्ष्य है इसका। इसी गवाह, साक्ष्य के परिणामस्वरूप अरुणाभ की कविताएँ जीवंत दस्तावेज़ साबित होती हैं। चाहे शीर्षक कविता ‘किसी और बहाने से’ हो या छोटी कविता ‘बदलती दुनिया का भाष्य’ हो।
दरअसल अरुणाभ की कविताएँ अपने रिक्त व अतिरिक्त में कुछ अधिक ही पसमंज़र प्रस्तुत करती हैं। ये अपनी कविताओं में एक ऐसा ख़्याल, दर्द और विचार लेकर आते हैं कि हम बतौर पाठक उनसे सीधे- सीधे जुड़ जाते हैं, वह भी बग़ैर किसी शास्त्र की सहायता लिये बिना अथवा बग़ैर किसी शब्दकोश को सामने रखे। कभी-कभी कविताओं को पढ़ते हुए ताज़्जुब या हैरानी होती है कि इतनी बेबाक़ी इस कवि में आती कहाँ से है? कहाँ से यह रचनाकार इतनी ऊर्जाशक्ति अपने शब्दों में दे रहा है? इन सवालों के ज़वाब में इनकी कविताओं को पढ़ते हुए एक बात निस्संदेह समझ में आती है कि अग़र कवि या रचनाकार अपना जिया हुआ जीवन लिखेगा तो वह दूर तलक दिल में उतरती है। बावजूद इसके कुछ ऐसा है जो अपने जिये हुए जीवन के अतिरिक्त कवि समय और समय, समाज के बीच बन-उठ रहे सवालों के हमारा कवि पूरे तौर पर वाकिफ़ है। इन कविताओं के असरदार होने का कारण अरुणाभ की विशिष्ट काव्यभाषा तो है ही, वैचारिक सवालों से लबरेज़ एक युवा बौद्धिकता व चेतना भी है। इसलिए अरुणाभ की कविताओं को पढ़ते हुए इसे मान लेने में कोई दो राय नहीं कि इस कवि ने अपनी कविताएँ समाज में सामान्य जीवन जीते हुए लिखी हैं। मेरे संज्ञान में मामी जैसे संबंध पर शायद यह पहली कविता है जो इतनी प्यारी हो और इतने सारे सवाल भी पैदा करती हो। संग्रह की प्रेम कविताएँ बेजोड़ है। अरुणाभ के यहाँ स्त्री जीवन के कई कोलाज मिलते हैं। इनके यहाँ स्त्री धरती माता भी है, भारत माता भी, मामी भी है तो चन्द्र गंधर्व की अप्सरा भी, प्यार तुम्हारा की प्रेमिका है, मेरे तुम्हारे बीच की प्रेमिका या किसी और बहाने से प्रेमिका भी। आह्वान की कामकाज़ी स्त्री है तो चायबागान की औरत भी एक स्त्री ही है। इतने सारे स्वरूप के बीच एक स्त्री जीवन का इतना विस्तृत कोलाज़ किसी अन्य संग्रह में दुर्लभ है। इसके अलावा गाँव की उदासी का गीत, मोबाईल सदी का शोकगीत और सबूत के तौर पर…इत्यादि कुछ कविताएँ ऐसी हैं जिन्हें हिंदी पाठकों का भरपूर प्यार मिला है।
समकालीन कविता में एक तत्व की चर्चा ख़ूब की जा रही है जिसे स्थानीयता की संज्ञा दी जा रही है। इस तात्विक दृष्टि से अरुणाभ की बहुतेरी कविताओं में इसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। अरुणाभ की कविताओं का भूगोल बहुत व्यापक है। एक तरफ़ हमारा कवि सुदूर ग्रामीण मिथिला के देहाती जीवन का चित्र रचता है तो दूसरी तरफ़ नागर बोध या नागरी सभ्यता का चित्र उकेरता है। इसलिए इन कविताओं को पढ़ते समय झीलों के शहर वाला भोपाल दिखता है तो दिल्ली-मुंबई के चकाचौंध के प्रति हमारा कवि सशंकित है। इसीलिए लिखता है…यहाँ इतनी शांति कई जिंदगी की बरबादियों के बाद क़ायम हुई है। अकारण ये पंक्तियाँ भोपाल गैस त्रासदी से जुड़ जाती हैं। इसके उदाहरणस्वरूप में ‘प्यार तुम्हारा’ या ‘झीलों के शहर में’ जैसी कविताएँ देखी परखी जा सकती हैं। संग्रह की कविता ‘कुछ रोज़मर्रे’ आज के आदमी का हलफ़नामा है और स्वयं रचनाकार की आपबीती भी। इसलिए इनके यहाँ ‘कुछ होना कविता होना नहीं है’ क्योंकि वह तो पागलपन और एक बीमारी होने की स्वाभाविक प्रक्रिया का परिणाम है। इस संग्रह में छत्तीस कविताएँ हैं और यहाँ प्रत्येक कविता पर बात नहीं हो सकती। अतः संग्रह बाज़ार में उपलब्ध हो गया है। मेरी राय में पाठक को अरुणाभ सौरभ की कविताओं के बहाने बदलती दुनिया को देख सकते हैं, पढ़ सकते हैं। बेहतर तो यह भी होगा कि बदलते परिवेश में पाठक को अच्छी समझ बनाए रखने में यह संग्रह सहायक सिद्ध हो, सफ़ल हो। मेरी ख़ूब सारी शुभकामनाएँ इस संग्रह के साथ हैं। अंत में ‘सबूत के तौर पर’ कवि के शब्दों में…कोशिश होगी कि/दुनिया के सुधरे हालात/अफसोस कि कोशिशों के बावज़ूद/मेरी कोई कोशिश काम नहीं आएगी/बहरहाल मेरी कविता को/सबूत समझना/ मेरे कुछ करते रहने की कोशिशों के बीच…