डॉ. उर्वशी भट्ट की भीतर तक विकल कर देने वाली विचारोत्तेजक कविताओं से भरा कविता-संग्रह ‘प्रत्यंचा’ हाल ही में बोधि प्रकाशन से सामने आया है। ये कविताएँ स्वाभिमानी स्त्री मन की कविताएँ हैं। आहत होने के बावजूद इन कविताओं की नायिका का जुझारूपन और आशा-विश्वास-बोध अडिग दीखता है। ‘मैं’ जैसे सर्वनाम को भी कवयित्री ने हर जोखिम के बावजूद पूरी शिद्दत के साथ साधा है। जबकि अच्छे-अच्छे कवियों ने इससे परहेज़ किया है। इस प्रकार अपनी कविताओं में ‘मैं’ को बख़ूबी साधकर अपने ‘स्व’ को ‘सर्व’ तक व्याप्त करने का कौशल्य दिखलाते हुए उर्वशी भट्ट ने अपनी विकलता को सबकी विकलता बना दिया है ; और वास्तव में असाधारण कविता भी वही होती है जो विकलता से निकलती है और विकलता तक पहुँचती है। अधिकांशतः ऐसी ही विकल कर देने वाली उर्वशी भट्ट की 70 संवेदनभरी कविताओं का असाधारण कविता- संग्रह है—’प्रत्यंचा’।
उर्वशी भट्ट की अनेक कविताएँ अतीत से जुड़ी हैं। कहीं-कहीं ऐसा भी लगता कि वीडियो को रिवर्स करके देखा जा रहा हो। कविता में ये प्रयोग अनूठे हैं। उर्वशी की शब्दावली बहुत ही प्रांजल , अलग ही तरह की स्तरीयता लिए और कविता के कॉन्टेंट में व्यक्त भावों के एकदम अनुकूल है। इस कारण भी बहुत ही मार्मिक बन पड़ी हैं ‘प्रत्यंचा’ की अनुभव पगी कविताएँ। कुछ कविताओं का संवेदन तो इतना प्रखर और हृदयस्पर्शी है कि रौंगटे खड़े हो जाते हैं…। उर्वशी का अतीत से लगाव एक नॉस्टेल्जिया की तरह तो है लेकिन इसी में से वे उम्मीद की पौद रोपतीं, स्वाभिमान और साहसभरी कवयित्री के रूप में उबरती हैं। ये सब स्वयं कविता में प्राण-प्रतिष्ठा जैसा है। ये नॉस्टेल्जिया उनकी ज़िन्दगी का एक ज़रूरी हिस्सा-सा बन गया है। चाह कर भी जिससे अलग नहीं हुआ जा सकता। यही उनकी ताक़त भी है।
उर्वशी भट्ट की कविताओं में इतनी संश्लिष्टता है कि कई बार लगता है कि क्या मैं इन कविताओं को पूरा समझ भी पाया हूँ? एक पल लगता है शायद हाँ; दूसरे ही पल लगता है शायद नहीं… फिर सोचता हूँ कि अगर मेरी ही ऐसी स्थिति है तो …। बौद्धिकता की परतदारियाँ आसानी से पल्ले नहीं पड़तीं। ये भी कई दफा आकाशगंगा-सी अनंत , तिलिस्मी और निरंतर गहराते रहस्य-सी सुलझाने के बजाए उलझाने ज़्यादा लगती हैं।
‘केनोपनिषद’ में एक श्लोक है –
“यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद स:।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातं अविजानतां।।”
अर्थात् जो यह कहता है कि मैं ब्रह्म का ज्ञाता हूँ, वह वास्तव में अज्ञ है। और जो यह कहता कि मैं उसे नहीं जानता वह विज्ञ है, यानी वही उसे जानता है। इसे पढ़ने के बाद, मैंने यही जाना कि ज्ञान का स्वरूप इतना विराट् है, इतना विराट् है कि उसे पूरा जाना ही नहीं जा सकता। ये तो ‘हाथी और अंधे’ के किस्से की तरह है। तुलसी ने इसे कुछ सरल कर दिया—’जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी’…। तो, मैं भी उर्वशी की कविताओं की व्याख्या अपनी भावनाओं और अपने ज्ञान की सीमा में रह कर ही कर रहा हूँ; और तटस्थ भाव से कर रहा हूँ। इन कविताओं में ख़ूब डूबने-उतरने के बाद, किनारे बैठ कर कर रहा हूँ। ठहर कर कर रहा हूँ। इन कविताओं की समीक्षा के लिए ठहरना, सँभलना ज़रूरी है। क्योंकि ये कविताएँ ‘हैंडल विद केयर’ की श्रेणी में आती हैं। चुके तो गए काम से …।
समीक्षित कृति
किताब का नाम : प्रत्यंचा
कवयित्री : डॉ. उर्वशी भट्ट
पृष्ठ संख्या : 148
मूल्य : ₹ 150/-
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन
सी 46, सुदर्शन पूरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन
नाला रोड, 22 गोदाम
जयपुर -302006
उर्वशी की एक अत्यंत ही उल्लेखनीय कविता है—’सृजन’।
मेरी समझ में, ये कविता ‘प्रत्यंचा’ का मूलस्वर है, केंद्रीयभाव है और वह मर्मबिन्दु है जिसके इर्द-गिर्द पुस्तक की सारी कविताएँ घूम रही हैं। ये पुस्तक के ‘न्यूक्लियस’ की तरह है।यानि स्त्रैण-अस्मिता का सधा हुआ रूप है। फिर चाहे वो देह से विदेह होने की यात्रा हो , विरह में दहते प्रेम के अंतरंग-संदर्भों से गुजरना हो अथवा हर टूटन और बिखराव को फिर से समेटने का पुरुषार्थ हो …। ‘सृजन’ कविता में एक संकल्पित-स्त्री का अलौकिक-दिव्य स्वरूप सामने आया है—
“तुमने / शीशे के टुकड़ों की भाँति / बिखेरा मुझे / मेरे अफसोस पर / अट्टहास किया / मैंने / किर्च किर्च होकर बिखरे / हर टुकड़े में / अपने वजूद को देखा / हर कहीं मैं ही मैं थी…”
(सृजन : पृष्ठ 45)
कविता आगे बढ़ती है तो उसकी अकूत ताक़त का विराट सामने आता है—
“तुमने मुझे / बीच राह की / अंतहीन भटकन दी / मैंने / तमाम हसरतों को छोड़ / यात्रारत रहने का / संकल्प ले लिया / और सत्य भी तो यही है / मंज़िल यात्रा का / पड़ाव नहीं / हिस्सा मात्र है…”
( सृजन : पृष्ठ 45 )
इसके आगे उर्वशी ने पूरी ‘प्रत्यंचा’ को खींच कर जो शरसंधान किया है, उसने उर्वशी को सही अर्थों में उर्वशी बना दिया… जो हर आहत स्त्री के लिए प्रेरणा का रूप बनकर उभरी है—
“तुमने मेरी उम्मीदों के / केनवास पर / विषाद की लकीरें खींच दीं / मैंने वहाँ उदित होते सूर्य का / आभासी चित्र उकेर दिया… / तुम किस दम्भ में भूल गए कि / अपने सम्पूर्ण अर्थ में / मैं एक स्त्री हूँ।”
(सृजन : पृष्ठ 46)
जब जीवन जड़वत-सा हो जाता है, एक स्थाई नीरसता भीतर घर कर लेती है , दूर दूर तक कोई राह नहीं सूझती तो अपने मन को ‘दर्द की देवी’ महादेवी वर्मा जैसा करना ही श्रेयस्कर है; जोकि उर्वशी भट्ट ने भी किया है… ‘तिमिर तिमिर मेरे दीपक जल’ के महादेवीय-भाव से उर्वशी भी अँधेरों में आशा का दीप बाले रख उनसे लड़ते रहना चाहती है… उसने सपने देखने नहीं छोड़े हैं… कविता का साथ नहीं छोड़ा है… उसने विषाद की लकीरों के ऊपर जो उदित होते सूर्य का आभासी चित्र बनाया था, उसे वो हक़ीक़त में परिवर्तित होते देखना चाहती है। अपनी ‘यायावर’ कविता में स्वप्न को वो ख़ुद से अलगने नहीं देती—
“प्रायः मेरे सिरहाने / एक स्वप्न बैठा रहता है / मैं स्वयं भी हतप्रभ रह जाती हूँ / यह देखकर / वह अब भी प्राण ऊर्जा से भरा / स्वस्फूर्त है… ”
( यायावर : पृष्ठ 55-56 )
और जिस उर्वशी ने वसंत के उर को ही वश में कर लिया हो, स्वयं वसंत ने जिसे अपनी आगोश में भर लिया हो, उस उर्वशी का लाख पतझर भी क्या बिगाड़ेंगे। उर्वशी भट्ट की ‘वसंत’ कविता के सौंदर्य को आँखों में भर कर तो देखिए—
“मेरी मृणाल बाहों पर / हल्की चटकी धूप का / रेशमी शॉल पड़ा है…”
“मेरी रूह जैसे / पवित्र ऋचाओं के / मद्धिम स्वरों से / भीगी हुई है…”
“… गोधूलि का तप्त / शरबती सूर्य /सांध्य नदी की गोद में / लाज से डूब रहा है …”
” और मैं … / समग्र हूँ / पूर्ण हूँ / वसंत के / आलिंगन में हूँ। ”
(वसंत : पृष्ठ 38-39)
हर रचनाकार की चाह होती है कि मरने के बाद भी उसकी रचनाओं को पढ़ा जाए। समय के फेर में देर तक टिकने वाली रचनाओं को अवश्य पढ़ा भी जाता है। फिर चाहे कालिदास हो, सूर हो, तुलसी हो, कबीर हो, ग़ालिब हो, रसखान हो, मीरा हो, महादेवी हो, पंत हो, प्रसाद हो, निराला हो, मुक्तिबोध हो, धूमिल हो, अज्ञेय हो, केदारनाथ अग्रवाल हो, कुँवर नारायण हो… लंबी कतार है ऐसे कवियों की जिनकी रचनाएँ आज भी कालजयी हैं। उर्वशी भट्ट की रचनाएँ भी निसंदेह कालजयी हैं।
‘प्रेम : पाँच’ कविता में व्यक्त उनका यह डर निरर्थक है कि उन्हें उनके बाद पढ़ा नहीं जाएगा—
“लेकिन कभी नहीं पढ़ी जाएँगी / मेरी कविताएँ / इनमें पिघल रहा दर्द / संज्ञा शून्य कर डालेगा / उसकी बची चेतना को…”
(प्रेम : पाँच : पृष्ठ 96)
इस ‘प्रत्यंचा’ के बाद असंभव है उर्वशी भट्ट को भूलना। समय उसे बार बार पढ़ेगा। हर बार पढ़ेगा। कविताएँ तो और भी बेशुमार हैं। एक से बढ़कर एक। पर समीक्षा की भी तो अपनी सीमा है। इस छोटे से कहे को ही आप बड़ा मानें। बस आख़िर में इस संकलन की शीर्षक कविता ‘प्रत्यंचा’ का ज़िक्र ज़रूरी समझता हूँ। यहाँ आहत कवयित्री के बाध्य-आक्रोश के दर्शन होते हैं , इसमें भी उसकी अस्मिता चर्म पर है—
“सुनो / मैं अभी अभी जागी हूँ / एक स्वप्न से / जिसमें भय की रिदम पर मैंने / अपने स्वप्न को / लहूलुहान देखा है / जीवन के आनंद से / प्रफुल्ल अंतस को / उदास देखा है / मेरी तरफ अपनी पीठ किए / चलते रहो / बहुत बहुत दूर निकल जाओ / मैं जीवन के हाशिये पर / प्रत्यंचा थामे खड़ी हूँ / तुम पलट कर मत देखना / कि फिर मैं / यथासामर्थ्य वार करूँगी…”
“क्योंकि तुमने मुझे / जीवित छोड़ दिया है।”
(प्रत्यंचा : पृष्ठ 18)
उर्वशी भट्ट का दर्द, दवा बन चुका है। देह, विदेह हो चुकी है। तभी तो वो एक जगह कहती हैं— “मेरी ग्लानि की परिणति / आत्महत्या नहीं हो सकती…” उर्वशी आशा की कवयित्री है। उसका ज़िन्दगी को देखने का नज़रिया परिपक्व है। उसका प्रेम, उसकी विरह दोनों ही अध्यात्मबोध से प्रकाशित हैं। मुक्तिबोध की कविता का अंश है— “कोशिश करो / कोशिश करो / कोशिश करो / ज़मीन में गड़ कर भी / जीने की कोशिश करो…”
उर्वशी भट्ट की कविताएँ भी काँटों के बीच मुस्कराना जानती हैं।
ऐसे जीवट और साहस को देखकर मुझे हाल ही में पढ़ीं लिली मित्रा की जिजीविषा से भरी कविताएँ भी याद आती हैं। अपनी पढ़ी हुई और कवयित्रियों की ही बात करूँ तो पुष्पिता अवस्थी, अनामिका, राजी सेठ, अलका सिन्हा, सुमन गौड़, शैल अग्रवाल, सुलभा कोरे, विजयश्री तन्वीर, सुधा उपाध्याय आदि की कविताओं में भी स्त्री अस्मिता और स्त्री जिजीविषा को ख़ूब रेखांकित किया गया है।
कुल मिलाकर कहूँ तो डॉ. उर्वशी भट्ट की ‘प्रत्यंचा’ अपने में एक, एक ऐसी अनूठी कृति है, जिसकी किसी और कृति से तुलना की ही नहीं जा सकती। इन कविताओं की थाह पाना, हर किसी के बस की बात नहीं है। समकालीन हिंदी साहित्य में यह कृति अत्यंत असाधारण है। इन कविताओं में सम्वेदना की पराकाष्ठा है। अवसादों से घिरे इस दौर में, उर्वशी की कविता एक राहत की तरह है। शब्दावली हो, वाक्य विन्यास हो, शब्दचित्र हों, भाववर्णन हों, ऊँचाई हो, गहनता हो, सघनता हो …, उर्वशी ने न अपनी विश्वसनीयता खोई है और न ही उत्कृष्टता। उर्वशी भट्ट की ‘प्रत्यंचा’ को पढ़ कर यही कहना चाहता हूँ, “कौन कहता है कि कविता मर चुकी है?”